उसने कहा था
- चंद्रधर शर्मा गुलेरी
बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के
कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे
हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएं। जबकि
बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी
घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी
उसके गुप्त गुह्य अंगों से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आंखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ
बताते हैं और संसारभर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं,
तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक
लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर ‘बचो खालसाजी, हटो भाईजी, ठहरना भाई, आने दो
लालाजी, हटो बाछा’ कहते हुए सफ़ेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों
के जंगल से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े।
यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी
की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं
हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं,‘हट जा जीणे जोगिए,
हट जा करमां वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए। बच जा लम्बी वालिए।’ समष्टि में
इसका अर्थ है,‘तू जीने योग्य है, तू
भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के
नीचे आना चाहती है? बच जा.’
ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की
दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं।
वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियां।
दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों
की गड्डी गिने बिना हटता न था।
‘तेरा घर कहां है?’
‘मगरे में...और तेरा?’
‘मांझे में, यहां कहां रहती है?’
‘अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।’
‘मैं भी मामा के आया हूं, उनका घर गुरु बाज़ार
में है।’
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों
साथ-साथ चले।
कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकुरा कर पूछा,‘तेरी
कुड़माई हो गई?’
इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुंह
देखता रह गया।
दूसरे, तीसरे दिन सब्ज़ी वाले के यहां,
या दूध वाले के यहां अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीनाभर यही हाल रहा।
दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरे कुड़माई
हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला।
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हंसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो
लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली,‘हां, हो गई।’
‘कब?’
‘कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू...’
लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया,
एक छाबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक
कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई
किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुंचा।
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात
खन्दकों में बैठे हड्डियां अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़
ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धंसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं। घंटे-दो-घंटे
में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती
उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहां दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी
निकल गई तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास
की पत्तियों में छिपे रहते हैं।’
‘लहना सिंह और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों
‘रिलीफ़’ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर
खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग़ में। मखमल की सी हरी घास है। फल और दूध की
वर्षा कर देती है. लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती. कहती है,
तुम राजा हो, मेरे मुल्क़ को बचाने आए हो।’
‘चार दिन तक पलक नहीं झपकी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना
लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जर्मनों को
अकेला मार कर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी
कहीं के, कलों के घोड़े, संगीन देखते
ही मुंह फाड़ देते हैं और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला
फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था। चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल
ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो...’
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुंच जाते! क्यों?’ सूबेदार
हजार सिंह ने मुस्कुराकर कहा,‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक
के चलाए नहीं चलते। बड़े अफ़सर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ
बढ़ गए तो क्या होगा?’
‘सूबेदार जी, सच है,’ लहना
सिंह बोला,‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों
में तो जाड़ा धंस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की
बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए, तो गरमी आ
जाए।’
"उदमी, उठ, सिगड़ी
में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियां लेकर खाई का पानी
बाहर फेंको। महा सिंह, शाम हो गई है, खाई
के दरवाज़े का पहरा बदल ले।’ यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गंदला पानी भर कर खाई के
बाहर फेंकता हुआ बोला,‘मैं पाधा बन गया हूं। करो जर्मनी के
बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए। लहना सिंह ने
दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा,‘अपनी बाड़ी के
खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा। हां, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार
से दस धुमा ज़मीन यहां मांग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊंगा।’
‘लाड़ी होरा को भी यहां बुला लोगे? या वही दूध
पिलानेवाली फरंगी मेम...’
‘चुप कर. यहां वालों को शरम नहीं।’
‘देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं
पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठों में लगाना चाहती
है और मैं पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब
मेरे मुल्क़ के लिए लड़ेगा नहीं।’
‘अच्छा, अब बोध सिंह कैसा है?’
‘अच्छा है।’
‘जैसे मैं जानता ही न होऊं! रातभर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और
आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे
लकड़ी के तख़्तों पर उसे सुलाते हो। आप कीचड़ में पड़े रहते हो. कहीं तुम न मांदे
पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है और 'निमोनिया'
से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’
‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूंगा। भाई कीरत
सिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आंगन के आम के पेड़ की
छाया होगी।’
वजीरा सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा,‘क्या
मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हां भाइयों,
कैसे?’
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुं
क बणाया वे मजेदार गोरिये
हुण लाणा चटाका कदुए नुं
कौन जानता था कि दाढ़ियावाले घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएंगे।
पर सारी खन्दक इस गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
दोपहर, रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया
हुआ है। बोधा सिंह ख़ाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहना
सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहना सिंह पहरे पर खड़ा हुआ है।
एक आंख खाई के मुंह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर। बोधा सिंह कराहा।
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
‘पानी पिला दो’
लहना सिंह ने कटोरा उसके मुंह से लगा कर पूछा,‘कहो कैसे हो?’ पानी पी कर बोधा बोला,‘कंपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।’
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’
‘और तुम?’
‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।’
‘ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे
लिए...’
‘हां, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज
सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु
उनका भला करें।’ यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
‘सच कहते हो?’
‘और नहीं झूठ?’ यों कह कर नहीं करते बोधा को
उसने ज़बरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ
खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुंह से आवाज़ आई,‘सूबेदार हजारा सिंह।’
‘कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!’ कह कर सूबेदार
तन कर फ़ौजी सलाम करके सामने हुआ।
‘देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की
दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से जियादा जर्मन नहीं हैं।
इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहां मोड़ है,
वहां पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूं। तुम यहां दस आदमी छोड़ कर सब को
साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म
न मिले, डटे रहो. हम यहां रहेगा।’
‘जो हुक्म।’
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहना
सिंह ने उसे रोका। लहना सिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा की
ओर इशारा किया। लहना सिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें. इस पर बड़ी
हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था. समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब
लहना की सिगड़ी के पास मुंह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने
लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा,‘लो
तुम भी पियो।’
आंख मारते-मारते लहना सिंह सब समझ गया। मुंह का भाव छिपा कर बोला,‘लाओ साहब।’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुंह देखा।
बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहां
उड़ गए और उनकी जगह क़ैदियों से कटे बाल कहां से आ गए?’ शायद
साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहना सिंह ने जांचना चाहा. लपटन साहब पांच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
‘क्यों साहब, हम लोग हिन्दुस्तान कब जाएंगे?’
‘लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द
नहीं?’
‘नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहां कहां?
याद है, पारसाल नक़ली लड़ाई के पीछे हम आप
जगाधरी ज़िले में शिकार करने गए थे?’
‘हां... हां...’
‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और, ...और आपका
ख़ानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक़ पाजी कहीं का। सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न
देखी थी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ
शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर
उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की
मैस में लगाएंगे।’
‘हां, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।’
‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फ़ुट के तो होंगे?’
‘हां, लहनासिंह, दो फ़ुट
चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
‘पीता हूं साहब, दियासलाई ले आता हूं,’
कह कर लहना सिंह खन्दक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने
झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए। अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
‘कौन? वजीर सिंह?’
‘हां, क्यों लहना? क्या
क़यामत आ गई? ज़रा तो आंख लगने दी होती?’
‘होश में आओ। क़यामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।’
‘क्या? लपटन साहब या तो मारे गए हैं या क़ैद
हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुंह नहीं देखा।
मैंने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है,
पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।’
‘तो अब?’
‘अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और
यहां खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक
काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।’
‘हुकुम तो यह है कि यहीं...’
‘ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहना सिंह जो इस वक़्त
यहां सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की
ख़बर लेता हूं।’
‘पर यहां तो तुम आठ ही हो।’
‘आठ नहीं, दस लाख. एक-एक अकालिया सिख सवा लाख
के बराबर होता है। चले जाओ।’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि
लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की
दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बांध दिया। तार के आगे सूत की
गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक
दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर
लहना सिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से
दियासलाई गिर पड़ी। लहना सिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘आंख!
मीन गाट्ट’ कहते हुए चित हो गए। लहना सिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके
और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और
एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्च्छा हटी। लहना सिंह हंसकर बोला,‘क्यों,
लपटन साहब, मिज़ाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि
जगाधरी के ज़िले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फ़ुट चार इंच के सींग होते हैं।
यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर
चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहां से सीख आए?
हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पांच लफ़्ज़ भी नहीं बोला करते थे।’
लहना सिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी. साहब ने मानो
जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले। लहना सिंह कहता गया,‘चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन
साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आंखें चाहिए। तीन महीने हुए एक
तुर्की मौलवी मेरे गांव में आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज बांटता था और
बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और
कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की
विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएंगे तो गोहत्या बन्द
कर देगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपए निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैंने
मुल्ला की दाढ़ी मूंड़ दी थी और गांव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गांव में
अब पैर रखा तो...’
इतने में साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जांघ में गोली
लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी।
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आए।
बोधा चिल्लाया,‘क्या है?’
लहना सिंह ने उसे तो यह कह कर सुला दिया कि,‘एक
हड़का कुत्ता आया था, मार दिया’ और औरों से सब हाल कह दिया।
बंदूकें लेकर सब तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियां
कसकर बांधी. घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू बंद हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों
की बाढ़ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका। पर यहां थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर
मार रहा था. वह खड़ा था और बाक़ी लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के
शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे... अचानक आवाज आई,‘वाहे गुरुजी की फतह! वाहेगुरु दी का खालसा!’ और धड़ाधड़ बंदूकों के फ़ायर
जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौक़े पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ
गए। पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहना सिंह के
साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर
दिया।
एक किलकारी और ‘अकाल सिक्खां दी फौज आई। वाहे गुरु जी दी फतह! वाहे
गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष!’ और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो
खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने
कन्धे में से गोली आर पार निकल गई। लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव
को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाक़ी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट
लिया। किसी को ख़बर नहीं हुई कि लहना को दूसरा घाव, भारी घाव
लगा है।
लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत
कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि
बाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणो पदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरा सिंह कह रहा था कि कैसे
मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं
दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और
काग़ज़ात पाकर उसकी तुरंत बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज
सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी।
उन्होंने पीछे टेलीफ़ोन कर दिया था। वहां से झटपट दो डॉक्टर और दो बीमार ढोने की
गाड़ियां चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुंचीं।
फ़ील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहां पहुंच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें
रखी गईं। सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोध सिंह ज्वर से
बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे
देखा जाएगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख
लहना ने कहा,‘तुम्हें बोधा की क़सम है और सूबेदारनी जी की
सौगंध है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।’
‘और तुम?’
‘मेरे लिए वहां पहुंचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दों के लिए भी
तो गाड़ियां आती होगीं। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं मैं खड़ा हूं? वजीरा सिंह मेरे पास है ही।’
‘अच्छा, पर...’
‘बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ।
सुनिए तो, सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था
टेकना लिख देना।’
‘और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।’
गाड़ियां चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर
कहा,‘तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा?
साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा
था?’
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह
लिख देना और कह भी देना।’
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया,‘वजीरा,
पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।’
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्मभर की
घटनाएं एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहना सिंह बारह वर्ष का है।
अमृतसर में मामा के यहां आया हुआ है। दहीवाले के यहां, सब्ज़ीवाले
के यहां, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह
पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह ‘धत्’ कहकर भाग जाती
है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा,‘हां, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम
के फूलों वाला सालू?’ यह सुनते ही लहना सिंह को दुख हुआ।
क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
‘वजीरा सिंह पानी पिला दे।’
पच्चीस वर्ष बीत गए। अब लहना सिंह नंबर 77 राइफ़ल्स
में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुक़दमे
की पैरवी करने वह घर गया। वहां रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली। फ़ौरन चले आओ।
साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं,
लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था।
लहना सिंह सूबेदार के यहां पहुंचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया।
बोला,‘लहना सिंह, सूबेदारनी तुमको
जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।’
लहना सिंह भीतर पहुंचा। ‘सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वॉर्टरों में तो कभी सूबेदार
के घर के लोग रहे नहीं।’ दरवाज़े पर जाकर ‘मत्था टेकना’ कहा। असीस सुनी। लहनासिंह
चुप।
‘मुझे पहचाना?’
‘नहीं।’
‘...तेरी कुड़माई हो गई? ...धत् ...कल हो गई ...देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू
...अमृतसर में!’
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था।
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है,‘मैंने
तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने
बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है,
आज नमक हलाली का मौक़ा आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया
पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती?
एक बेटा है। फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार
और हुए, पर एक भी नही जिया।’
सूबेदारनी रोने लगी,‘अब दोनों जाते हैं। मेरे
भाग! तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोड़ा दहीवाले की
दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़ों की लातों
पर चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख़्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन
दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं।’
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना सिंह भी आंसू पोंछता हुआ
बाहर आया।
‘वजीरा सिंह, पानी पिला,’ उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है। जब मांगता है,
तब पानी पिला देता है। आधे घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला,‘कौन? कीरतसिंह?’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा,‘हां।’
‘भइया, मुझे और ऊंचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा
सिर रख ले।’
वजीरा ने वैसा ही किया।
‘हां, अब ठीक है। पानी पिला दे बस। अब के हाड़
में यह आम ख़ूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा
भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था
उसी महीने मैंने इसे लगाया था।’
वजीरा सिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने
अख़बारों में पढ़ा...
फ्रांस और बेल्जियम, 67वीं सूची, मैदान में घावों से मरा नंबर 77 सिख राइफ़ल्स
जमादार लहना सिंह।
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