शनिवार, 16 मई 2020

"मजदुर"

                   
                      "मजदुर" 

           मुफ़लिसी का दर्द ए बयां यह था कि अपनों से, अपने गाँव से, अपनी जड़ों से उखड़ कर कही और जा बसा। किसी की जड़े जमाने के लिए दिन-रात लोहे पिघलाएं, सीमेंट की होली खेली, पत्थरो पर हथौड़े मारे, अलकतरे गलाये, सड़के चमकायी और चमकाया पूरा शहर। दुनिया देखने आयी, दुनिया में ढिंढोरा पीटा गया। मेरा नही ,मेरे बनाये शहर का। किन्तु उसमे मेरा जिक्र कही नही था। मैं खुश था फिर भी, क्योंकि मैं था उसमें भले जिक्र न हो। वैसेभी मेरे होने न होने से किसे फर्क पड़ता है। 
       एकदिन आपदा आयी पूरी दुनिया से होते हुए मेरे शहर। देश और शहर दोनों बंद कर दिए गए। जिस शहर को मैंने बनाया, चमकाया, पहचान दी, वह मुझसे मेरा पता पूछने लगा। कुछ दिन गुजार लिए, एकदिन निकल पड़ा अपनी जड़ों की ओर पैदल। आदमी को अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ चाहिए, मै नही था। प्रवाशी था अपने देश में। सवाल एक ही था जिन्दा पहूंच जाना। पैरों के छाले गवाह है ये देखिये। पोस्टमार्टम झूठ है सरकार। मेरी आंत नही सुखी थी। मेरी मुस्कराहट देखिये, भूखा कही मुस्कुराता है। 
                                  "भारत"
जब नयी सुबह हुई तब जोश और हौशला से भरा भारत काफी रफ़्तार से बढ़ने लगा। उसे लगा वह अपने सपनो की उड़ान से अपनी नई पहचान यथा शीघ्र बना लेगा । सबकुछ सही दिशा में बढ़ रहा था। किंतु नियति को उसकी परीक्षा लेनी थी।
    एक आपदा आयी। सब उससे जूझने लगे। भारत भी जूझ रहा था किंतु उसकी दुर्घटना हो गयी। हाथ, पैर टूट चुके थे पर वह मुस्कुरा रहा था।। 
                                                               

                                                       - गोबिंद यादव  

मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु

  मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु   “घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति क...