नाखून क्यों बढ़ते हैं? एक ललित निबंध है। जिसमें भारतीयता, उसकी महत्ता, यहां के लोगों की सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक चिंतन, रहन-सहन, भाषा ज्ञान, संस्कृति पर समान रूप से प्रकाश डालते हैं। इस निबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानवतावादी दृष्टिकोण उभरकर सामने आया है। इसके माध्यम से बार-बार काटे जाने पर भी बढ़ जाने वाले नाखून के माध्यम से सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकासगाथा को उद्घाटित करते हैं। एक ओर नाखून का बढ़ना मनुष्य की आदिम पाशविक प्रवृत्ति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तो वहीं दूसरी ओर नाखून को बार-बार काटते रहना उसके मनुष्यता की निशानी है।
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द्विवेदीजी के इस निबंध की शुरुआत बच्चे की जिज्ञासा या एक प्रश्न से होती है। "नाखून क्यों बढ़ते हैं?" यह प्रश्न बच्चे द्वारा पूछा गया सामान्य सा प्रश्न नहीं रहता, जब लेखक इस प्रश्न में अंतर्निहित उसके व्यापक अर्थ को खोलता है । हम सभी जानते हैं कि नाखूनों का आज ऐसा कोई उपयोग नहीं है जो उसके होने की आवश्यकता को सिद्ध करे। लेकिन मानव इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा होगा जब मनुष्यों को इन नाखूनों की जरूरत थी। अपनी बर्बर अवस्था में जब मनुष्य बनमानुस की तरह रहा होगा, तब अपनी रक्षा और शिकार के लिए दांतों और नाखूनों का इस्तेमाल भी करता होगा। लेकिन आज नाखूनों का ऐसा कोई उपयोग बाकी नहीं रहा है। फिर भी, नाखून बढ़ते जाते हैं। आज नाखून को बढ़ाना अच्छा नहीं माना जाता, इसलिए मनुष्य बढ़े हुए नाखूनों को काटता है। शायद इसलिए कि बढ़े हुए नाखून असभ्यता और जंगलीपन की निशानी है।
द्विवेदीजी इस निबंध मे एक नया प्रश्न उठाते हैं। अगर मनुष्य सचमुच बर्बरता के चिह्नों से छुटकारा पाना चाहता है तो फिर वह हथियारों का निर्माण क्यों कर रहा है? किसी जमाने में मनुष्य अपनी रक्षा के लिए नख और दांत का प्रयोग करता था। फिर, पत्थर, लकड़ी और हड्डियों का इस्तेमाल करने लगा। लोहे के हथियार बने, बारूद का आविष्कार हुआ और अब एटम बम का युग है। हथियारों के इस विकास को देखें तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक विध्वंसक हथियार बनाने की ओर बढ़ रहा है। हिरोशिमा और नागासाकी का उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एटम बमों ने लगभग दो लाख लोगों को कुछ ही मिनटों में लाश में बदल दिया था। तब कैसे कह सकते है कि मनुष्य सचमुच बर्बरता से मुक्त होना चाहता है? उसकी बर्बरता लगातार बढ़ रही है –“मनुष्य की बर्बरता घाटी कहा है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है। यह तो उसका नवीनतम रूप है।”
द्विवेदीजी निबंध में हमें यह जानकारी देते हैं कि आज सें दो हजार साल पहले भारत में नाखूनों को सजाने संवारने की कला का विकास भी हुआ थ.स्पष्ट है कि नाखूनों के जिस उपयोग का यहां संकेत दिया गया है उसका संबंध मनुष्य की विलास वृत्ति से रहा है। लेकिन द्विवेदीजी इस तरह की प्रवृत्ति के सकारात्मक पक्ष को भी हमारे सामने रखते हैं, जब वे कहते हैं कि “'समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचने वाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है।“ द्विवेदीजी के कहने का तात्पर्य यह है कि वे वस्तुएं जो मनुष्य को पतन की ओर ढकेलती हैं उनको भी भारतीय परंपरा ने कला का रूप देकर मनुष्यत्व के अनुकूल बनाने का प्रयास किया है।
उन्होंने इस निबंध में मुख्य प्रश्न यह उठाया है कि मनुष्य पशुता से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा है? नाखून के बढ़ने को वे पशुता मानते हैं और हथियारों के निर्माण को भी- “जानते हो नाख़ून क्यों बढ़ते है? यह हमारी पशुता के अवशेष है। जानते हो ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे है? ये हमारी पशुता की निशानी है।“ नाखून का बढ़ना ऐसी ही सहजात वृत्ति है जो उस अवस्था की द्योतक है जब मनुष्य बर्बर अवस्था में रहता था । मनुष्य इस बात को आज भूल गया है कि नाखूनों का बढ़ना उसी पशुत्व का प्रमाण है। बाहरी तौर पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है लेकिन पशुत्व का चिह्न अब भी विद्यमान है जिसे वह बढ़ने पर काट देता है। लेकिन क्या मनुष्य ने सचमुच मनुष्यता को अपना लिया है? इस प्रश्न का उत्तर है "नहीं"। क्योंकि मनुष्य नाखून भले ही काट रहा हो लेकिन हथियारों को तो लगातार बढ़ा ही रहा है।
समस्या की ही तरह वे समाधान के प्रश्न को भी सीधे रूप में नहीं रखते। वे अपनी चर्चा की शुरुआत अंग्रेजी के एक शब्द "इंडिपेंडेंस के भारतीय पर्याय से करते हैं। "इंडिपेंडेंस" का अर्थ है अनधीनता। अनधीनता का आशय है "किसी की अधीनता का अभाव' । लेकिन भारतीय पर्याय यह नहीं है। भारतीय पर्याय है, स्वाधीनता या स्वतंत्रता अर्थात स्व की अधीनता या स्व का तंत्र। इस प्रकार इसमें किसी की अधीनता का अभाव नहीं बल्कि 'स्व' की अधीनता का भाव निहित है। इसे दिवेदीजी भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हैं।
यहां एक शंका खड़ी हो सकती है कि क्या दिवेदीजी भारतीय परंपरा का महिमा मंडन कर रहे हैं? निश्चय ही नहीं । द्विवेदीजी कालिदास के मत का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि पुरातनपंथियों जैसी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि अगर हमारे अतीत के कोष में मानव जाति की भलाई की कोई बात हो तो हमें उसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
आचार्य द्विवेदी इसके बाद मानव जाति के लिए सामान्य धर्म की बात को उठाते हैं। आखिर मनुष्य और पशु में मुल अंतर क्या है? भारतीय परंपरा में आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार बातें ऐसी मानी गयी हैं जो मनुष्य और पशु में एक समान है। स्पष्ट ही इन चार बातों के होने मात्र से कोई मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं बन जाता। तब वह क्या चीज है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है? यहाँ दिवेदीजी उस सामान्य धर्म की बात करते हैं जिसे स्वयं मनुष्य ने खोजा है और जिसे मनुष्य अपने ऊपर बंधन के तौर पर स्वीकार किया है। संयम, श्रद्धा, तप, त्याग और दूसरों के दुख- सुख के प्रति संवेदना । निश्चय ही ये ऐसे धर्म हैं जिन्हें स्वीकार करने के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है लेकिन जिन्हें स्वीकार करके मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है।
भौतिक उन्नति इस बात की गारंटी नहीं है कि मनुष्य पशुत्व से मुक्त हो जाएगा। हथियार इसी भौतिक उन्नति का अंग है जिससे केवल विध्वंस और विनाश ही हो सकता है। लेकिन क्या मनुष्य का लक्ष्य विनाश है? महात्मा गांधी ने सावधान किया था कि सिर्फ भौतिक उन्नति से सुख और शांति नहीं मिलेगी। अपने मन को भी बदलना होगा मन से हिंसा, क्रोध, द्वेष और असत्य को दूर करना और दूसरों के लिए जीना सीखना होगा, दूसरों के लिए कष्ट सहन करना होगा।
द्विवेदीजी कहते हैं कि हो सकता है किसी दिन नाखून बढ़ना बंद हो जाएं क्योंकि जो हमारे लिए गैरे जरूरी है प्रकृति उसे हमसे अलग कर देती है - जैसे पूंछ । हो सकता है किसी दिन मनुष्य विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण बंद कर दे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हमें बच्चों को सिखाना होगा कि नाखून का बढ़ना पशुता की निशानी है और उसको बढ़ने देना मनुष्य का आदर्श नहीं है। इसी तरह हथियारों की बढ़ोतरी हमारी पशुता की निशानी है। और उनको कम करने की इच्छा रखना हमारी मनुष्यता का प्रमाण है। हमें अपने मनुष्य होने की पहचान को नहीं भूलना चाहिए।
मानव जाति की सार्थकता विनाशकारी हथियारों का ढेर लगाने में नहीं है। मनुष्य जीवन की सार्थकता इस बात नें है कि वह प्रेम, मैत्री और त्याग के मार्ग पर चले तथा सब के कल्याण के लिए अपने को समर्पित कर दे। नाखून के बढ़ने की तरह हिंसक वृत्ति भले ही मनुष्य की सहज वृत्ति का परिणाम हो, लेकिन उससे मुक्त होने की कोशिश करना भी मनुष्यत्व की पहचान है।
इस प्रकार द्विवेदीजी नाखून बढ़ने के सवाल से मनुष्य की हिसक वृत्ति को जोड़ते हैं और हिंसक वृत्ति के सवाल को हथियारों की बढ़ोतरी से। हथियारों में वृद्धि होने से मानवजाति के संपूर्ण
विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रश्न यह है कि इससे मुक्त कैसे हों? द्विवेदीजी इसके लिए आत्मनियंत्रण का मार्ग सुझाते हैं जो भारतीय परंपरा की देन है और जिसके द्वारा ही मनुष्य अपने अंदर की पशुता से मुक्त हो सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि यह निबंध हमें विश्व- शांति के महत्त्व पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है ।
निष्कर्ष रूप म हम कह सकते है कि इस निबंध में आचार्य द्विवेदीजी का मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मनुष्य ने कुछ ऐसी भावनाओं और धारणाओं को भी अंगीकार किया है जिनसे वह अपनी पाशविकता पर विजय प्राप्त कर सके । दूसरों के सुख-दुख के प्रति संवेदना का भाव. भाव, दूसरों के लिए कष्ट उठाना वृत्तियों पर विजय पा सकता है। प्रेम का ये ऐसी चीजें हैं जिनसे व्यक्ति घृणा, क्रोध, हिंसा जैसी इस प्रकार हम देखते हैं कि इस निबंध में बस्तुत: दो भिन्न तरह की भावधाराओं का संघर् दिखाया गया है जिन्हें आज की हमारी सभ्यता के मूल में निहित माना जा सकता है।
गोबिंद कुमार यादव
बिरसा मुंडा कॉलेज
6294524332
द्विवेदीजी के इस निबंध की शुरुआत बच्चे की जिज्ञासा या एक प्रश्न से होती है। "नाखून क्यों बढ़ते हैं?" यह प्रश्न बच्चे द्वारा पूछा गया सामान्य सा प्रश्न नहीं रहता, जब लेखक इस प्रश्न में अंतर्निहित उसके व्यापक अर्थ को खोलता है । हम सभी जानते हैं कि नाखूनों का आज ऐसा कोई उपयोग नहीं है जो उसके होने की आवश्यकता को सिद्ध करे। लेकिन मानव इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा होगा जब मनुष्यों को इन नाखूनों की जरूरत थी। अपनी बर्बर अवस्था में जब मनुष्य बनमानुस की तरह रहा होगा, तब अपनी रक्षा और शिकार के लिए दांतों और नाखूनों का इस्तेमाल भी करता होगा। लेकिन आज नाखूनों का ऐसा कोई उपयोग बाकी नहीं रहा है। फिर भी, नाखून बढ़ते जाते हैं। आज नाखून को बढ़ाना अच्छा नहीं माना जाता, इसलिए मनुष्य बढ़े हुए नाखूनों को काटता है। शायद इसलिए कि बढ़े हुए नाखून असभ्यता और जंगलीपन की निशानी है।
द्विवेदीजी इस निबंध मे एक नया प्रश्न उठाते हैं। अगर मनुष्य सचमुच बर्बरता के चिह्नों से छुटकारा पाना चाहता है तो फिर वह हथियारों का निर्माण क्यों कर रहा है? किसी जमाने में मनुष्य अपनी रक्षा के लिए नख और दांत का प्रयोग करता था। फिर, पत्थर, लकड़ी और हड्डियों का इस्तेमाल करने लगा। लोहे के हथियार बने, बारूद का आविष्कार हुआ और अब एटम बम का युग है। हथियारों के इस विकास को देखें तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक विध्वंसक हथियार बनाने की ओर बढ़ रहा है। हिरोशिमा और नागासाकी का उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एटम बमों ने लगभग दो लाख लोगों को कुछ ही मिनटों में लाश में बदल दिया था। तब कैसे कह सकते है कि मनुष्य सचमुच बर्बरता से मुक्त होना चाहता है? उसकी बर्बरता लगातार बढ़ रही है –“मनुष्य की बर्बरता घाटी कहा है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है। यह तो उसका नवीनतम रूप है।”
द्विवेदीजी निबंध में हमें यह जानकारी देते हैं कि आज सें दो हजार साल पहले भारत में नाखूनों को सजाने संवारने की कला का विकास भी हुआ थ.स्पष्ट है कि नाखूनों के जिस उपयोग का यहां संकेत दिया गया है उसका संबंध मनुष्य की विलास वृत्ति से रहा है। लेकिन द्विवेदीजी इस तरह की प्रवृत्ति के सकारात्मक पक्ष को भी हमारे सामने रखते हैं, जब वे कहते हैं कि “'समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचने वाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है।“ द्विवेदीजी के कहने का तात्पर्य यह है कि वे वस्तुएं जो मनुष्य को पतन की ओर ढकेलती हैं उनको भी भारतीय परंपरा ने कला का रूप देकर मनुष्यत्व के अनुकूल बनाने का प्रयास किया है।
उन्होंने इस निबंध में मुख्य प्रश्न यह उठाया है कि मनुष्य पशुता से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा है? नाखून के बढ़ने को वे पशुता मानते हैं और हथियारों के निर्माण को भी- “जानते हो नाख़ून क्यों बढ़ते है? यह हमारी पशुता के अवशेष है। जानते हो ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे है? ये हमारी पशुता की निशानी है।“ नाखून का बढ़ना ऐसी ही सहजात वृत्ति है जो उस अवस्था की द्योतक है जब मनुष्य बर्बर अवस्था में रहता था । मनुष्य इस बात को आज भूल गया है कि नाखूनों का बढ़ना उसी पशुत्व का प्रमाण है। बाहरी तौर पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है लेकिन पशुत्व का चिह्न अब भी विद्यमान है जिसे वह बढ़ने पर काट देता है। लेकिन क्या मनुष्य ने सचमुच मनुष्यता को अपना लिया है? इस प्रश्न का उत्तर है "नहीं"। क्योंकि मनुष्य नाखून भले ही काट रहा हो लेकिन हथियारों को तो लगातार बढ़ा ही रहा है।
समस्या की ही तरह वे समाधान के प्रश्न को भी सीधे रूप में नहीं रखते। वे अपनी चर्चा की शुरुआत अंग्रेजी के एक शब्द "इंडिपेंडेंस के भारतीय पर्याय से करते हैं। "इंडिपेंडेंस" का अर्थ है अनधीनता। अनधीनता का आशय है "किसी की अधीनता का अभाव' । लेकिन भारतीय पर्याय यह नहीं है। भारतीय पर्याय है, स्वाधीनता या स्वतंत्रता अर्थात स्व की अधीनता या स्व का तंत्र। इस प्रकार इसमें किसी की अधीनता का अभाव नहीं बल्कि 'स्व' की अधीनता का भाव निहित है। इसे दिवेदीजी भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हैं।
यहां एक शंका खड़ी हो सकती है कि क्या दिवेदीजी भारतीय परंपरा का महिमा मंडन कर रहे हैं? निश्चय ही नहीं । द्विवेदीजी कालिदास के मत का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि पुरातनपंथियों जैसी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि अगर हमारे अतीत के कोष में मानव जाति की भलाई की कोई बात हो तो हमें उसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
आचार्य द्विवेदी इसके बाद मानव जाति के लिए सामान्य धर्म की बात को उठाते हैं। आखिर मनुष्य और पशु में मुल अंतर क्या है? भारतीय परंपरा में आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार बातें ऐसी मानी गयी हैं जो मनुष्य और पशु में एक समान है। स्पष्ट ही इन चार बातों के होने मात्र से कोई मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं बन जाता। तब वह क्या चीज है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है? यहाँ दिवेदीजी उस सामान्य धर्म की बात करते हैं जिसे स्वयं मनुष्य ने खोजा है और जिसे मनुष्य अपने ऊपर बंधन के तौर पर स्वीकार किया है। संयम, श्रद्धा, तप, त्याग और दूसरों के दुख- सुख के प्रति संवेदना । निश्चय ही ये ऐसे धर्म हैं जिन्हें स्वीकार करने के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है लेकिन जिन्हें स्वीकार करके मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है।
भौतिक उन्नति इस बात की गारंटी नहीं है कि मनुष्य पशुत्व से मुक्त हो जाएगा। हथियार इसी भौतिक उन्नति का अंग है जिससे केवल विध्वंस और विनाश ही हो सकता है। लेकिन क्या मनुष्य का लक्ष्य विनाश है? महात्मा गांधी ने सावधान किया था कि सिर्फ भौतिक उन्नति से सुख और शांति नहीं मिलेगी। अपने मन को भी बदलना होगा मन से हिंसा, क्रोध, द्वेष और असत्य को दूर करना और दूसरों के लिए जीना सीखना होगा, दूसरों के लिए कष्ट सहन करना होगा।
द्विवेदीजी कहते हैं कि हो सकता है किसी दिन नाखून बढ़ना बंद हो जाएं क्योंकि जो हमारे लिए गैरे जरूरी है प्रकृति उसे हमसे अलग कर देती है - जैसे पूंछ । हो सकता है किसी दिन मनुष्य विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण बंद कर दे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हमें बच्चों को सिखाना होगा कि नाखून का बढ़ना पशुता की निशानी है और उसको बढ़ने देना मनुष्य का आदर्श नहीं है। इसी तरह हथियारों की बढ़ोतरी हमारी पशुता की निशानी है। और उनको कम करने की इच्छा रखना हमारी मनुष्यता का प्रमाण है। हमें अपने मनुष्य होने की पहचान को नहीं भूलना चाहिए।
मानव जाति की सार्थकता विनाशकारी हथियारों का ढेर लगाने में नहीं है। मनुष्य जीवन की सार्थकता इस बात नें है कि वह प्रेम, मैत्री और त्याग के मार्ग पर चले तथा सब के कल्याण के लिए अपने को समर्पित कर दे। नाखून के बढ़ने की तरह हिंसक वृत्ति भले ही मनुष्य की सहज वृत्ति का परिणाम हो, लेकिन उससे मुक्त होने की कोशिश करना भी मनुष्यत्व की पहचान है।
इस प्रकार द्विवेदीजी नाखून बढ़ने के सवाल से मनुष्य की हिसक वृत्ति को जोड़ते हैं और हिंसक वृत्ति के सवाल को हथियारों की बढ़ोतरी से। हथियारों में वृद्धि होने से मानवजाति के संपूर्ण
विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रश्न यह है कि इससे मुक्त कैसे हों? द्विवेदीजी इसके लिए आत्मनियंत्रण का मार्ग सुझाते हैं जो भारतीय परंपरा की देन है और जिसके द्वारा ही मनुष्य अपने अंदर की पशुता से मुक्त हो सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि यह निबंध हमें विश्व- शांति के महत्त्व पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है ।
निष्कर्ष रूप म हम कह सकते है कि इस निबंध में आचार्य द्विवेदीजी का मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मनुष्य ने कुछ ऐसी भावनाओं और धारणाओं को भी अंगीकार किया है जिनसे वह अपनी पाशविकता पर विजय प्राप्त कर सके । दूसरों के सुख-दुख के प्रति संवेदना का भाव. भाव, दूसरों के लिए कष्ट उठाना वृत्तियों पर विजय पा सकता है। प्रेम का ये ऐसी चीजें हैं जिनसे व्यक्ति घृणा, क्रोध, हिंसा जैसी इस प्रकार हम देखते हैं कि इस निबंध में बस्तुत: दो भिन्न तरह की भावधाराओं का संघर् दिखाया गया है जिन्हें आज की हमारी सभ्यता के मूल में निहित माना जा सकता है।
गोबिंद कुमार यादव
बिरसा मुंडा कॉलेज
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