एब्सर्ड नाटक
एब्सर्ड नाटक का शाब्दिक अर्थ असंगत, बेतुका, अनर्गल, निरर्थक आदि होता है। पश्चिम में बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में ही इसका प्रयोग ऐसे नाटकों, कहानियों आदि के लिए होने लगा था जिनकी एक सामान्य स्थापना थी कि मनुष्य की दशा निरर्थक, व्यर्थ अथवा एब्सर्ड हो चुकी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं रहा गया है। एब्सर्ड नाटकों के लेखन में यूजीन लानेस्को, सैमुअल बैकेट, हेरोल्ड प्रिंटर आदि का विशेष योगदान है। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बाद समाज में फैली घोर निराशा, भय, अनास्था जीवन की निस्सारता आदि इसके मूल में है।
एब्सर्ड नाटक कारों के अनुसार व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक के कालखंड को जबरदस्ती जी रहा है। उसका कोई सुनियोजित लक्ष्य नहीं है। व्यक्ति निरर्थक मेहनत कर रहा है, उसके ऊपर नीरस और एक रस जिंदगी लादी गई है। मशीनी विकास ने उसको बिल्कुल पराधीन कर दिया है। व्यक्ति का जीवन अनिश्चित और संकटग्रस्त है। विनाश के आतंक ने उसमें निराशा, कुंठा और संत्रास भर दिया है। एब्सर्ड नाटकों में व्यक्ति का भीतरी यथार्थ अधिक व्यक्त हुआ है। इनमें परंपरागत मूल्यों के प्रति आस्था नहीं है।
एब्सर्ड नाटक प्रतीकों के माध्यम से जीवन की विसंगतियों और विडंबना को चित्रित करते हैं। एब्सर्ड नाटकों के चरित्र और सामान्य प्रतीत होते हैं इनमें बीमार, आवारा, ऊबे, थके-हारे, उचक्के लंपट और विक्षिप्त चरित्रों को विशेष महत्व दिया जाता है। इनके चरित्र समाज से बहिष्कृत या उससे अपना नाता तोड़े हुए होते हैं और वे पूरी तरह निराशा के शिकार होते हैं। एब्सर्ड नाटकों का मंचन अतार्किक लगता है। इनकी मंच सज्जा बिल्कुल साधारण तथा बेतरतीब होती है। दर्शकों और पात्रों के बीच कोई विशेष दूरी नहीं रखी जाती। इनमें प्रतीकात्मक मंच को अधिक महत्व दिया जाता है।
एब्सर्ड नाटक हिंदी में सीधे इसी रूप में ले लिया है। कुछ लोग इसके लिए असंगत नाटक शब्द का प्रयोग करते हैं किंतु इसका प्रचलन कम है। हिंदी में एब्सर्ड नाटकों के प्रथम प्रयोगकर्ता भुवनेश्वर हैं। इनका ‘तांबे के कीड़े’ हिंदी का प्रथम एब्सर्ड नाटक है। भुवनेश्वर पश्चिम के नए नाटकों के विकास क्रम से भलीभांति परिचित थे और द्वितीय विश्वयुद्ध के विश्वव्यापी प्रभाव को गहराई से महसूस कर रहे थे। यही कारण है कि जिस समय पाश्चात्य देशों में नाटकों का लेखन प्रारंभ हुआ उसी समय भुवनेश्वर ने अपना तांबे के कीड़े नाटक लिखा। इसे विश्व के असंगत नाटकों के विकास क्रम में रखकर देखा जा सकता है।
नुक्कड़ नाटक
नुक्कड़ नाटक, नाटक के क्षेत्र में अपेक्षाकृत एक नया प्रयोग है। आरंभ में साहित्य और नाटक के विद्वानों ने इसे नाट्य विधा ही मानने से इनकार कर दिया था लेकिन आठवें दशक में यह नाटक रूप काफी लोकप्रिय हुआ है और इससे कई प्रख्यात नाटककार और रंगकर्मी जुड़े हैं साथ ही इसने रंगमंच व नाटकों को प्रभावित भी किया है। नुक्कड़ नाटक को अंग्रेजी में स्ट्रीट प्ले के नाम से जाना जाता है। यह ऐसी नाट्य विधा है जिससे किसी सड़क पर, गली चौराहे पर, किसी फैक्ट्री के गेट पर खेला जा सकता है। आमतौर पर इसको उसी रूप में पेश किया जाता है जैसे सड़क पर मदारी अपना खेल दिखाने के लिए मजमा लगाते हैं। नाट्य प्रस्तुति का यह रूप जनता से सीधे संवाद स्थापित करने में मदद करता है। नाटक में न अंक परिवर्तन होते हैं और न दृश्य परिवर्तन। कथानक में परिवर्तन को ऐसे रंग संकेतों के माध्यम से पेश किया जाता है जिसे दर्शक आसानी से ग्रहण कर सकें। वेशभूषा भी बार-बार नहीं बदली जा सकती और ना ही नाटक को इतना लंबा किया जा सकता है कि सड़क पर खड़े और बैठे दर्शकों के लिए धैर्य रखना मुश्किल हो जाए इसलिए नुक्कड़ नाटक बहुत लंबे नहीं होते।
अपने लेख नुक्कड़ नाटक का महत्व और कार्यप्रणाली में सफदर हाशमी ने इस तथ्य की पुष्टि की है-“ हमारा अनुभव बताता है कि अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत नाट्य मंडलियों को अंततः अपने नाटक खुद ही रचने पड़ते हैं।“ आठवें दशक में एक और यदि जन नाट्य मंच द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे नुक्कड़ नाटक को राष्ट्रीय स्तर पर जनसाधारण के बीच व्यापक स्वीकृति और ख्याति मिल रही थी तो दूसरी ओर स्थापित और परंपरा वादी रंग कर्मियों ने समीक्षकों और अभिजात कला मंडलियों में नुक्कड़ नाटकों रंगकर्म मानने से इनकार करने वालों की भरमार थी।
नुक्कड़ नाटक में दर्शकों और नाट्य मंडली के बीच कोई दूरी नहीं होती बल्कि सारे अभिनेता दर्शक समुदाय के बीच गोलाकार रंगस्थल बनाकर अपना नाट्य खेलते हैं। नुक्कड़ नाटक में अनेक बार एक ही अभिनेता को टोप, छड़ी, वेशभूषा में थोड़ा परिवर्तन करके अनेक प्रकार के चरित्रों की भूमिका निभानी होती है। सफदर हाशमी की यह स्पष्ट समझ थी कि “रंगमंच अपनी चारों ओर के रंगीन पर्दो और तामझाम पर निर्भर नहीं होता। किसी भी खाली जगह पर चाहे वह गोल हो या चौकोर या वर्गाकार नाटक अपनी पूरी ताकत और खूबसूरती के साथ प्रकट हो सकता है।“ कुछ लोगों ने इसे चौराहा नाटक भी कहा है किंतु यह नाम प्रचलित नहीं हो सका। नुक्कड़ नाटकों में लोक शैली के तत्वों का व्यापक प्रयोग किया जाता है इससे नाटकों में रोचकता पैदा होती है। लोक शैली के गीतों का भी इसमें भरपूर प्रयोग होता है खासतौर पर आरंभ में दर्शकों को लुभा कर इकट्ठा करने के लिए।
नुक्कड़ नाटक में सफदर हाशमी एक बहुत बड़ा नाम है। जन नाट्य मंच के मशीन, हत्यारे, औरत, राजा का बाजा, पुलिस चरित्रम और काला कानून जैसे नाटक इसी प्रक्रिया में रचे गए थे।
समस्या-नाटक
यूरोप में समस्या नाटकों का प्रचलन रोमांटिक नाटकों की प्रतिक्रिया के फल-स्वरूप हुआ। १६ वीं शताब्दी इश्वी के उत्तरार्ध में इब्सन ने नाटकों के क्षेत्र में जो प्रवर्तन किया उससे शेक्सपियर की रोमानी भावनाओं के स्थान पर एक बौद्धिक चेतना उत्पन्न हुई । उससे प्रेरणा ग्रहण करके शॉ ने पिटी हुई परंपराओं और रोमानी धारणाओं पर गहरा प्रहार किया। फिर तो शॉ का प्रभाव इतना विश्व-व्यापी हुआ कि उसके नाटकों की गुँज देश-देशान्तर में फैल गई। हिन्दी समस्या-नाटकों में भी उसकी क्षीण प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है।
बीसवीं शताब्दी में स्त्री शिक्षा के प्रचार और राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्री समाज के भी भाग लेने से भारत में पश्चिमी पद्धति पर नव समाज निर्मित हो रहा था किंतु विवाह संबंधी नैतिक विधान अभी तक पुरातन रूप में ही चल रहे थे। अतएव इस काल में उन्मुक्त प्रेम और दांपत्य के होड़ में नई समस्या खड़ी हो गई। समस्या नाटक लिखने के लिए उत्सुक नाटककारों का सर्वप्रथम ध्यान इसी ओर गया। उन्होंने इब्सन और शॉ के नाटकों में इस समस्या की खोज की और उन्हें इब्सन के ‘डॉल्स हाउस’ में यह विचार मिला कि पुरुष स्त्री को किस मात्रा में स्वतंत्रता दे सकता है जिससे नारी का व्यक्तिगत विकास और ना हो सकें।
समस्या नाटक के आधुनिक जन्मदाता मिश्रजी माने जाते हैं। इस पद्धति का समस्या-नाटक के आधुनिक पहला नाटक 'संन्यासी' 1927 ई० में लिखा गया है । इस नाटक की प्रेरणा के विषय में मिश्रजी कहते हैं,'-'पहले महायुद्ध की समाप्ति पर कैथराइन की 'मदर इण्डिया' निकल चुकी थी। यूरोप और अमेरिका के कितने ही लेखक काले, भूरे और पीलों से गोरों को सावधान रहने की चेतावनी दे रहे थे । रंगीन जातियों को सब ओर से हीन कहने की चेष्टा की जा रही थी । हिंडमन ब्लांड, पुटनमवील, डालाथ्रास्नोदार आदि कितने ही राजनीतिक लेखक इस बात की घोषणा कर रहे थे कि भविष्य में गोरों का संकट रंगीन जातियों से बढ़ेगा । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में इस तरह का साहित्य बराबर बढ़ रहा था, जिसके पढ़ने का सुयोग मुझे विद्यार्थी-जीवन में वहीं मिल गया । इस प्रचार की जो प्रतिक्रिया हुई, उसी ने हिन्दी के प्रथम समस्या नाटक 'संन्यासी' को जन्म दिया।“
रेडियो नाटक
रेडियो पर प्रसारित होने वाले नाटकों को रेडियो नाटक कहते हैं। एकांकी और रेडियो नाटक की मुख्य विभाजन-रेखा यही है कि पहला दृश्य है और दूसरा श्रव्य। फिर भी रेडियो नाटक श्रव्य होकर भी नाटक ही है। जहां एकांकी का माध्यम रंगमंच है वहां रेडियो नाटक का माध्यम ध्वनि है। इस माध्यम की भिन्नता के कारण दोनों की अपनी अलग-अलग सुविधाएं और सुविधाएं हैं। रेडियो नाटक का आधार ध्वनि है। ध्वनि भावभीव्यक्ति का बहुत बड़ा साधन है। हम एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न प्रकार से उच्चारित करके प्रेम, घृणा, क्रोध आदि विभिन्न भावनाओं की अभिव्यक्ति दिन प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में करते हैं। रेडियो नाटक में इसी ध्वनि का मुख्यतः सहारा लिया जाता है। मुख्यतः जिन रूपो में ध्वनि का सहारा लिया जाता है वे है भाषा, ध्वनि प्रभाव और संगीत। रेडियो नाटक में ध्वनि के सहारे वाचिक अभिनय को इतना सजीव बनाया जाता है कि आंगिक अभिनय भी साकार हो उठता है।
बच्चन सिंह के शब्दों में “विषय की दृष्टि से जितने व्यापक विषय को रेडियो नाटकों में प्रस्तुत किया जा सकता है उतनी व्यापक विषय को एकांकी में नहीं उपस्थित किया जा सकता है इकाइयों के बंधन रेडियो नाटकों को स्वीकार्य नहीं है।“ 1936 ईस्वी में पहला हिंदी रेडियो नाटक ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित हुआ था जिसमें रंग संकेत, दृश्यांतर, अंतराल सब के सब रंगमंच के थे। इंग्लैंड में जो पहला नाटक रेडियो पर प्रसारित हुआ था वह शेक्सपियर का जुलियस सीजर का एक दृश्य था शेक्सपियर का जिसका प्रसारण 28 मई 1923 को हुआ था।
हिंदी में चतुरसेन शास्त्री का राधा-कृष्ण रेडियो के लिए लिखा गया पहला नाटक माना जाता है। रेडियो नाटक के आरंभिक लेखकों में रामकुमार वर्मा, उदय शंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, जगदीश चंद्र माथुर आदि प्रमुख हैं जिन्होंने रेडियो पर प्रसारित होने के लिए नाटकों की रचना की है। बाद में फैंटेसी, मोनोलॉग गीतिनाट्य रेडियो पर खूब प्रसारित हुए। इस समय टेलीविजन के व्यापक प्रसार से रेडियो नाटकों के लेखन में कमी आई है और उसका भविष्य उज्ज्वल दिखाई नहीं दे रहा है।
गोबिन्द कुमार यादवबिरसा मुंडा कॉलेज6294524332