रविवार, 17 मार्च 2024

रघुवीर सहाय का जीवन परिचय

 नई कविता के प्रखर स्वर रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद परास्नातक अँग्रेज़ी साहित्य में लखनऊ विश्वविद्यालय से किया। आकाशवाणी, नवभारत टाइम्स, दिनमान, प्रतीक, कल्पना, वाक् आदि पत्र-पत्रिकाओं के साथ पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन से संबद्ध रहे। 


कविताओं में उनका प्रवेश ‘दूसरा सप्तक’ के साथ हुआ। वह समकालीन हिंदी कविता के संवेदनशील ‘नागर’ चेहरा कहे जाते हैं। उनका सौंदर्यशास्त्र ख़बरों का सौंदर्यशास्त्र है। उनकी भाषा ख़बरों की भाषा है और उनकी अधिकांश कविताओं की विषयवस्तु ख़बरधर्मी है। ख़बरों की यह भाषा कविता में उतरकर भी निरावरण और टूक बनी रहती है। इसमें वक्तव्य है, विवरण है, संक्षेप-सार है। उसमें प्रतीकों और बिंबों का उलझाव नहीं है। ख़बर में घटना और पाठक के बीच भाषा जितनी पारदर्शी होगी, ख़बर की संप्रेषणीयता उतनी ही बढ़ेगी। वह इसलिए कविता की एक पारदर्शी भाषा लेकर आते हैं। वह अपनी कविताओं की जड़ों को समकालीन यथार्थ में रखते हैं, जैसा उन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में कहा था कि ‘विचारवस्तु का कविता में ख़ून कि तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों।’ इस यथार्थ के विविध आयाम के अनुसरण में उनकी कविताएँ बहुआयामी बनती जाती हैं और इनकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती। उन्होंने सड़क, चौराहा, दफ़्तर, अख़बार, संसद, बस, रेल और बाज़ार की बेलौस भाषा में कविताएँ लिखी। रोज़मर्रा की तमाम ख़बरें उनकी कविताओं में उतरकर सनसनीख़ेज़ रपटें नहीं रह जाती, आत्म-अन्वेषण का माध्यम बन जाती हैं।   


कविताओं के अलावे उन्होंने कहानी, निबंध और अनुवाद विधा में महती योगदान किया है। उनकी पत्रकारिता पर अलग से बात करने का चलन बढ़ा है।


दूसरा सप्तक (1951), सीढ़ियों पर धूप में (1960), आत्महत्या के विरुद्ध (1967), हँसो, हँसो जल्दी हँसो (1975), लोग भूल गए हैं (1982) और कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (1989), एक समय था (1994) उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। सीढ़ियों पर धूप में (1960), रास्ता इधर से है (1972) और जो आदमी हम बना रहे हैं (1983) संग्रहों में उनकी कहानियाँ संकलित हैं। दिल्ली मेरा परदेस (1976), लिखने का कारण (1978), ऊबे हुए सुखी और वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे; भँवर लहरें और तरंग (1983) उनके निबंध-संग्रह हैं। रघुवीर सहाय रचनावली (2000) के छह खंडों में उनकी सभी कृतियों को संकलित किया गया है। 


कविता-संग्रह ‘लोग भूल गए हैं’ के लिए उन्हें 1984 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।




भक्तिकाल की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति

 भक्तिकाल की परिस्थितियाँ

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्येतिहास में भक्तिकाल की समय सीमा वि.सं. 1375 से वि.सं. 1700 (1318 से 1643 ई.) निश्चित की है। तमाम विद्वान् इस काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग मानते हैं। हम जानते हैं कि किसी युग-विशेष के साहित्य को समझने के लिए उस युग की परिस्थितियों का अध्ययन अनिवार्य होता है, क्योंकि युगीन परिस्थितियाँ साहित्य में प्रतिफलित होकर उसे अवश्यमेव प्रभावित करती हैं। भक्तिकालीन परिस्थितियों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं। 


(क) राजनीतिक परिस्थितियाँ

राजनीतिक दृष्टि से भक्तिकाल का लगभग समय आतंक, अत्याचार, अशांति और संघर्ष का काल है। भक्ति-काल का आरंभ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (सन् 1325 से 1351 ई.) के राज्य-काल से कुछ पूर्व हुआ और लगभग शाहजहाँ के राज्यकाल (सन् 1624 से 1658 ई.) के साथ इसका अंत हुआ। लगभग सातवीं शताब्दी में भारत पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण का जो सिलसिला शुरू हुआ था, इस काल में भी वह जारी था। परिणामस्वरूप चौदहवीं शताब्दी के अंत तक प्रायः समूचे उत्तरी भारत पर मुसलमानों का अधिकार हो चुका था और यवन-सेनाएँ अब दक्षिण की ओर बढ़ने लगी थीं। 1


मुहम्मद गौरी के पश्चात् दिल्ली का शासन मुख्य रूप से क्रमशः गुलाम, खिलजी, तुगलक और मुगल वंशों के हाथों में रहा। भारतीय नरेश पराजित अवश्य हो गए थे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं की आपसी फूट के कारण अभी तक उन्होंने इस पराजित मनोवृत्ति को स्वीकार नहीं किया था और वे अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील थे। वस्तुतः मुगल सम्राट् बाबर के आक्रमण के पश्चात् ही यहाँ सुदृढ़ केंद्रीय शासन की स्थापना हो सकी। इतिहास साक्षी है कि बाबर का सारा जीवन युद्धों में ही समाप्त हो गया। हुमायूँ और शेरशाह सूरी के शासनकाल भी राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वहीन ही माने जा सकते हैं। हाँ, अकबर ने अपने शासन-काल में भारत को राजनीतिक स्थिरता प्रदान की और हिन्दू-मुसलमानों के मध्य बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता की खाई को पाटने का प्रयास किया। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन-काल में भी भारत में राजनीतिक शांति रही। परिणामस्वरूप अकबर से लेकर शाहजहाँ तक के काल में ही भक्ति-साहित्य को चरमोत्कर्ष प्राप्त हुआ। उल्लेखनीय है कि भक्तिकाल के लगभग सारे प्रमुख कवि अपने देश के राजनीतिक वातावरण से अप्रभावित ही का प्रभाव ग्रहण नहीं किया। यों नानक और तलसी ने इस ओर संकेत किए हैं, लेकिन ये उनके मूल रहे हैं। कबीर, नानक, जायसी, तुलसी और सूरदास सरीखे प्रतिनिधि कवियों ने राजनीतिक वातावरण विषय कभी नहीं रहे। समग्रतः इन भक्तों की वाणी धर्म और शांति-प्रधान ही रही।

(ख) सामाजिक परिस्थितियाँ

चौदहवीं और पंद्रहवी शताब्दियों में हिन्दू-मुसलमानों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, काफी आदान-प्रदान हुआ। इससे जहाँ पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि हुई, वहीं जाति-पाति, खान-पान और विवाहादि के बंधन भी कठोरतर होते चले गए। कहीं-कहीं हिन्दू-मुसलमानों में विवाह संबंध भी स्थापित हुए। परिणामस्वरूप एक ही परिवार के कुछ लोग हिन्दू रह गए और कुछ मुसलमान बन गए। हिन्दुओं की बहू-बेटियों के अपहरण की बढ़ती घटनाओं का असर यह हुआ कि हिन्दू-समाज स्वयं को निरंतर संकुचित घेरे में बंद करता चला गया। बाल-विवाह, पर्दा प्रथा और वेश्यावृत्ति आदि कुरीतियाँ प्रचलित होकर सामाजिक व्यवस्था को क्षीण करने लगीं।


मुगलों ने शेरशाह सूरी द्वारा समाप्त की गई जमींदारी प्रथा को पुनः चालू कर दिया। इस प्रथा की छत्रछाया में पलने वाले जागीरदार, मनसबदार, रईस और जमींदार ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। इसके विपरीत हिन्दू-समाज अभावों से ग्रस्त था। इतिहासकार बर्नीयर ने लिखा भी है कि “हिन्दुओं के पास धन-संचित करने के कोई साधन नहीं बचे थे और उनमें से अधिकतर को निर्धनता, अभावों एवं आजीविका के लिए निरंतर संघर्षरत जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था। करों का सार भार उन्हीं पर था। राज्य-पद उनको अप्राप्त थे।


डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने भक्तिकाल की सामाजिक परिस्थितियों के विषय में लिखा है-“समाज की छिन्न-भिन्न अवस्था तो पहले से ही चली आ रही थी; दूसरे, राजनीतिक परिवर्तनों के कारण वह और भी अव्यवस्थित हो गई।” सामाजिक ढांचे की इस अवस्था को लक्ष्य करके ही कबीर और तुलसी को इस दिशा में अपना सुधारात्मक स्वर अधिक प्रबलता एवं वेग के साथ मुखरित करना पड़ा।




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  मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु   “घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति क...