भक्तिकाल की परिस्थितियाँ
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्येतिहास में भक्तिकाल की समय सीमा वि.सं. 1375 से वि.सं. 1700 (1318 से 1643 ई.) निश्चित की है। तमाम विद्वान् इस काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग मानते हैं। हम जानते हैं कि किसी युग-विशेष के साहित्य को समझने के लिए उस युग की परिस्थितियों का अध्ययन अनिवार्य होता है, क्योंकि युगीन परिस्थितियाँ साहित्य में प्रतिफलित होकर उसे अवश्यमेव प्रभावित करती हैं। भक्तिकालीन परिस्थितियों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं।
(क) राजनीतिक परिस्थितियाँ
राजनीतिक दृष्टि से भक्तिकाल का लगभग समय आतंक, अत्याचार, अशांति और संघर्ष का काल है। भक्ति-काल का आरंभ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (सन् 1325 से 1351 ई.) के राज्य-काल से कुछ पूर्व हुआ और लगभग शाहजहाँ के राज्यकाल (सन् 1624 से 1658 ई.) के साथ इसका अंत हुआ। लगभग सातवीं शताब्दी में भारत पर विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण का जो सिलसिला शुरू हुआ था, इस काल में भी वह जारी था। परिणामस्वरूप चौदहवीं शताब्दी के अंत तक प्रायः समूचे उत्तरी भारत पर मुसलमानों का अधिकार हो चुका था और यवन-सेनाएँ अब दक्षिण की ओर बढ़ने लगी थीं। 1
मुहम्मद गौरी के पश्चात् दिल्ली का शासन मुख्य रूप से क्रमशः गुलाम, खिलजी, तुगलक और मुगल वंशों के हाथों में रहा। भारतीय नरेश पराजित अवश्य हो गए थे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं की आपसी फूट के कारण अभी तक उन्होंने इस पराजित मनोवृत्ति को स्वीकार नहीं किया था और वे अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयत्नशील थे। वस्तुतः मुगल सम्राट् बाबर के आक्रमण के पश्चात् ही यहाँ सुदृढ़ केंद्रीय शासन की स्थापना हो सकी। इतिहास साक्षी है कि बाबर का सारा जीवन युद्धों में ही समाप्त हो गया। हुमायूँ और शेरशाह सूरी के शासनकाल भी राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वहीन ही माने जा सकते हैं। हाँ, अकबर ने अपने शासन-काल में भारत को राजनीतिक स्थिरता प्रदान की और हिन्दू-मुसलमानों के मध्य बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता की खाई को पाटने का प्रयास किया। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन-काल में भी भारत में राजनीतिक शांति रही। परिणामस्वरूप अकबर से लेकर शाहजहाँ तक के काल में ही भक्ति-साहित्य को चरमोत्कर्ष प्राप्त हुआ। उल्लेखनीय है कि भक्तिकाल के लगभग सारे प्रमुख कवि अपने देश के राजनीतिक वातावरण से अप्रभावित ही का प्रभाव ग्रहण नहीं किया। यों नानक और तलसी ने इस ओर संकेत किए हैं, लेकिन ये उनके मूल रहे हैं। कबीर, नानक, जायसी, तुलसी और सूरदास सरीखे प्रतिनिधि कवियों ने राजनीतिक वातावरण विषय कभी नहीं रहे। समग्रतः इन भक्तों की वाणी धर्म और शांति-प्रधान ही रही।
(ख) सामाजिक परिस्थितियाँ
चौदहवीं और पंद्रहवी शताब्दियों में हिन्दू-मुसलमानों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, काफी आदान-प्रदान हुआ। इससे जहाँ पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि हुई, वहीं जाति-पाति, खान-पान और विवाहादि के बंधन भी कठोरतर होते चले गए। कहीं-कहीं हिन्दू-मुसलमानों में विवाह संबंध भी स्थापित हुए। परिणामस्वरूप एक ही परिवार के कुछ लोग हिन्दू रह गए और कुछ मुसलमान बन गए। हिन्दुओं की बहू-बेटियों के अपहरण की बढ़ती घटनाओं का असर यह हुआ कि हिन्दू-समाज स्वयं को निरंतर संकुचित घेरे में बंद करता चला गया। बाल-विवाह, पर्दा प्रथा और वेश्यावृत्ति आदि कुरीतियाँ प्रचलित होकर सामाजिक व्यवस्था को क्षीण करने लगीं।
मुगलों ने शेरशाह सूरी द्वारा समाप्त की गई जमींदारी प्रथा को पुनः चालू कर दिया। इस प्रथा की छत्रछाया में पलने वाले जागीरदार, मनसबदार, रईस और जमींदार ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। इसके विपरीत हिन्दू-समाज अभावों से ग्रस्त था। इतिहासकार बर्नीयर ने लिखा भी है कि “हिन्दुओं के पास धन-संचित करने के कोई साधन नहीं बचे थे और उनमें से अधिकतर को निर्धनता, अभावों एवं आजीविका के लिए निरंतर संघर्षरत जीवन व्यतीत करना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर बहुत निम्न कोटि का था। करों का सार भार उन्हीं पर था। राज्य-पद उनको अप्राप्त थे।”
डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने भक्तिकाल की सामाजिक परिस्थितियों के विषय में लिखा है-“समाज की छिन्न-भिन्न अवस्था तो पहले से ही चली आ रही थी; दूसरे, राजनीतिक परिवर्तनों के कारण वह और भी अव्यवस्थित हो गई।” सामाजिक ढांचे की इस अवस्था को लक्ष्य करके ही कबीर और तुलसी को इस दिशा में अपना सुधारात्मक स्वर अधिक प्रबलता एवं वेग के साथ मुखरित करना पड़ा।
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