भीष्म साहनी – अमृतसर आ गया
गाड़ी
के डिब्बे में बहुत मुसाफ़िर नहीं थे। मेरे सामने वाली सीट पर बैठे सरदारजी देर से
मुझे लाम के क़िस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग
ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फ़ौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे
थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की
पोशाक पहने हुए ऊपर वाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर
से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मज़ाक़ चल रहा था। वह
दुबला बाबू पेशावर का रहने वाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक़्त वे आपस में, पश्तो
में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक
बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे।
संभव है, दो-एक और मुसाफ़िर भी रहे हों। पर वे स्पष्टतः मुझे
याद नहीं।
गाड़ी
धीमी रफ़्तार से चली जा रही थी; और गाड़ी में बैठे
मुसाफ़िर बतिया रहे थे, और बाहर गेहूँ के खेतों
में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन ही मन बड़ा
ख़ुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होने वाला 'स्वतंत्रता
दिवस समारोह' देखने जा रहा था।
उन्हीं
दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने
लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर
तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदारजी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि
पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जाकर बस
जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता, “बंबई
क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई
छोड़ देने में क्या तुक है।” लाहौर और गुरदासपुर के बारे में अनुमान लगाए जा रहे
थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप
में, हँसी-मज़ाक़ में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़कर जा रहे
थे, जबकि अन्य लोग उनका मज़ाक़ उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा क़दम ठीक
होगा और कौन-सा ग़लत! एक और पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान
के आज़ाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे हो रहे थे और कौम-ए-आज़ादी की तैयारियाँ भी
चल रही थीं। इस पृष्ठभूमि में लगता, देश आज़ाद हो जाने पर
दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण के इस झुटपुटे में आज़ादी की सुनहरी धूल-सी
उड़ रही थी। और साथ ही साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और
इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक़्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती
थी।
शायद
जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था, जब ऊपरवाली बर्थ पर
बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ माँस और नान-रोटी के टुकड़े
निकाल-निकालकर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मज़ाक़ के बीच मेरी बग़ल में
बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और माँस की बोटी बढ़ाकर खाने का आग्रह करने लगा
था, खा ले बाबू, ताक़त आएगी। हम जैसा हो जाएगा। बीवी भी तेरे साथ ख़ुश
रहेगी। खा ले दाल-खोर, तू दाल खाता है इसलिए दुबला है...
डिब्बे
में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कुराता सिर
हिलाता रहा।
इस
पर दूसरे पठान ने हँसकर कहा, ओ ज़ालिम, अमारे
आथ से नई लेता ऐ तो अपने आथ से उठा ले। ख़ुदा क़सम बर का गोश्त ऐ, और
किसी चीज़ का नई ऐ।
ऊपर
बैठा पठान चहक कर बोला, “ओ खंजीर के तुख़्म, इधर
तुमें कोन देखता ए? हम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी
तोड़। हम तेरे साथ दाल पिएँगा...
इस
पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता सिर हिलाता रहा और कभी-कभी
दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
ओ
कितना बुरा बात ए, अम खाता ए और तू हमारा मुँह देखता ए... सभी पठान मगन
यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं। स्थूलकाय सरदारजी बोले और बोलते ही
खी-खी करने लगे। अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदारजी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही
थी, तुम अभी सोकर उठे हो और उठते ही पोटली खोलकर खाने लग गए हो, इसीलिए
बाबूजी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं। और
सरदाजी ने मेरी ओर देखकर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।
माँस
नई खाता ए बाबू, तो जाओ जनाना डब्बे में बैठो, इधर
क्या करता ए? फिर कहकहा उठा।
डब्बे
में और भी मुसाफ़िर थे लेकिन पुराने मुसाफ़िर यही थे जो सफ़र शुरू होने पर गाड़ी
में बैठे थे। बाक़ी मुसाफ़िर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफ़िर होने के नाते ही
उनमें एक तरह की बेतकल्लुफ़ी आ गई थी।
ओ
इधर आकर बैठो। तुम हमारे साथ बैठो। आओ ज़ालिम, क़िस्साखानी
की बात करेंगे।
तभी
किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफ़िरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत से
मुसाफ़िर एक साथ घुसते चले आए थे।
कौन-सा
स्टेशन है ? किसी ने पूछा।
वज़ीराबाद
है शायद। मैंने बाहर की ओर देखकर कहा। गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर
छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने
उतरा और नल पर जाकर पानी लोटे में भर रहा था, वह
भागकर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। जब छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था, लेकिन
जिस ढंग से वह भागा था उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन
या चार आदमी रहे होंगे...इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबराकर
भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-देखते प्लेटफ़ार्म ख़ाली हो गया, मगर
डिब्बे के अंदर अब भी हँसी-मज़ाक़ चल रहा था।
कहीं
कोई गड़बड़ है। मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।
कहीं
कुछ था लेकिन कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए
वातावरण में होने वाली छोटी तबदीली को भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक
से बंद होते दरवाज़े, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी
और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।
तभी
पिछले दरवाज़े की ओर से, जो प्लेटफ़ार्म की ओर न
खुलकर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई
मुसाफ़िर अंदर घुसना चाह रहा था।
कहाँ
घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया, जगह
नहीं है। किसी ने कहा।
बंद
करो जी दरवाज़ा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं...आवाज़ें आ रही थीं।
जितनी
देर कोई मुसाफ़िर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर
बैठे मुसाफ़िर उसका विरोध करते हैं, पर एक बार जैसे-तैसे वह
अंदर आ जाए तो विरोध ख़त्म हो जाता है और मुसाफ़िर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का
निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े
मुसाफ़िरों पर चिल्लाने लगता है, “नहीं है जगह, अगले
डिब्बे में जाओ...घुसे जाते हैं...
दरवाज़े
पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी
दरवाज़े में से अंदर घुसता हुआ दिखाई दिया। चीकट मैले कपड़े, ज़रूर
कहीं हलवाई का काम करता होगा। वह लोगों की शिकायती आवाज़ों की ओर ध्यान दिए बिना
दरवाज़े की ओर घूमकर बड़ा-सा काले रंग का संदूक़ अंदर की ओर घसीटने लगा।
आ
जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ आओ। वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था।
तभी दरवाज़े में एक पतली सूखी सी औरत नज़र आई और उससे पीछे सोलह-सत्तरह बरस की
साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदारजी को कूल्हों
के बल उठकर बैठना पड़ा।
बंद
करो जी दरवाज़ा, बिना पूछे चढ़ आते हैं, अपने
बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो; धकेल
दो पीछे... और लोग भी चिल्ला रहे थे।
वह
आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी, बेटी
संडास के दरवाज़े के साथ लगकर खड़ी थीं।
और
कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है!
वह
आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक़ के बाद
रस्सियों में बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।
टिकट
है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ। लाचारी है। शहर में दंगा हो गया
है। बड़ी मुश्किल से स्टेशन तक पहुँचा हूँ। इस पर डिब्बे में बैठे बहुत लोग चुप हो
गए पर बर्थ पर बैठा पठान उचककर बोला, “निकल जाओ, इदर
से, देखता नई इदर जगह नई ए।
और
पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़कर ऊपर से ही उस
मुसाफ़िर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने
के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वह वहीं हाय-हाय करती बैठ गई।
उस
आदमी के पास मुसाफ़िरों के साथ उलझने के लिए वक़्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान
अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी
गठरियाँ आईं, इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन क्षमता चुक गई, निकालो
इसे कौन ए ये? वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने जो नीचे की सीट पर
बैठा था, उस आदमी का संदूक़ दरवाज़े में से नीचे धकेल दिया
जहाँ लाल वर्दी वाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।
उसकी
पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफ़िर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठी बुढ़िया
कुरलाए जा रही थी, “ऐ नेकबख़्तो, बैठने
दो, आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफ़र काट लेंगे। छोड़ो, बे
ज़ालिमो, बैठने दो...
अभी
आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा, जब सहसा गाड़ी सरकने
लगी।
“छूट
गया! सामान छूट गया। वह आदमी बदहवास-सा होकर चिल्लाया।
“पिताजी
सामान छूट गया। संडास के दरवाज़े के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और
चिल्लाए जा रही थी।
उतरो
नीचे उतरो । वह आदमी हड़बड़ाकर चिल्लाया और आगे बढ़कर खाट की पटियाँ और गठरियाँ
बाहर फेंकते हुए दरवाज़े का डंडहरा पकड़कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी भयाकुल
बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों
से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
बहुत
बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।
बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी, तुम्हारे दिल में दर्द
मर गया है। छोटी सी बच्ची उनके साथ थी, बेरहमो, तुमने
बहुत बुरा किया है धक्के देकर उतार दिया है।
गाड़ी
सूने प्लेटफ़ार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई।
बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।
तभी मेरी बग़ल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रखकर कहा, आग
है। देखो, आग के बीच फ़र्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुरदे
जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा, “ओ
बेग़ैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट
पर से उठकर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए। वह बोल रहा था और
बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा
रहा। अन्य सभी मुसाफ़िर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।
ऐसे
आदमी को अम डिब्बे में बैठने नई देगा। ओ बाबू, तुम
अगले स्टेशन पर उतर जाओ और जनाना डिब्बे में बैठो।
मगर
बाबू की हाज़िरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकलाकर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर
बाद वह अपने-आप उठकर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह
क्यों उठकर फ़र्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि शहर
से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण
खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ
भी कहना कठिन था। मुमकिन है, किसी एक मुसाफ़िर ने
किसी कारण से खिड़की पल्ला चढ़ाया हो और उसकी देखा-देखी बिना सोचे समझे, धड़ाधड़
खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे हों।
बोझिल
अनिश्चित-से वातावरण में सफ़र कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफ़िर
स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ़्तार सहसा टूटकर धीमी
पड़ जाती थी तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो
डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चिंत थे। हाँ, उन्होंने
भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत
में कोई शामिल होने वाला न था।
धीरे-धीरे
पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफ़िर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे।
बुढ़िया मुँह सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी
सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने अधलेटे ही, कुर्ते
की जेब में से काले मणकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।
खिड़की
के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और
भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक़्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नज़र आते, कोई
नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक़्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर
किसी वक़्त उसकी रफ़्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ़्तार से ही चलती रहती।
सहसा
दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देखकर ऊँची आवाज़ में बोला, “हरबंसपुरा
निकल गया है! उसकी आवाज़ में उत्तेजना थी, वह
जैसे चीख़कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज़ सुनकर चौंक गए। उसी वक़्त
डिब्बे के अधिकांश मुसाफ़िरों ने मानो उसकी आवाज़ को ही सुनकर करवट बदली।
ओ
बाबू, चिल्लाता क्यों ए? तसबीह
वाला पठान चौंककर बोला, “इधर उतरेगा? जंजीर
खींचूँ? और खी-खी करके हँस दिया। ज़ाहिर है, वह
हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।
बाबू
ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और
एक-आध बार पठान की ओर देखकर फिर खिड़की से बाहर झाँकने लगा।
डिब्बे
में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ़्तार टूट गई। थोड़ी देर
बाद खटाक का-सा शब्द हुआ, शायद गाड़ी ने लाइन
बदली थी। बाबू ने झाँककर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़े जा रही थी।
शहर
आ गया है। वह फिर ऊँची आवाज़ में चिल्लाया, “अमृतसर
आ गया है!” उसने फिर से कहा और उछलकर खड़ा हो गया, और
ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधन करके चिल्लाया, “ओ
बे पठान के बच्चे! नीचे उतर ! तेरी माँ की...नीचे उतर, तेरी
उस पठान बनाने वाले की मैं...
बाबू
चिल्लाने लगा था और चीख़-चीख़कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट
बदली और बाबू की ओर देखकर बोला, “ओ क्या ए बाबू? अमको
कुछ बोला?
बाबू
को उत्तेजित देखकर अन्य मुसाफ़िर भी उठ बैठे।
नीचे
उतर, तेरी माँ.... हिंदू औरत को लात मारता है, हरामज़ादे, तेरी
उस...
ओ
बाबू, बक-बक नहीं करो। ओ खंजीर के तुख़्म, गाली
मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा ज़बान खींच लेगा।
गाली
देता है, मादर...! बाबू चिल्लाया और उछलकर सीट पर चढ़ गया। वह
सिर से पाँव तक काँप रहा था।
बस!
बस! सरदाजी बोले, यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफ़र बाक़ी
है। आराम से बैठो।
तेरी
मैं लात न तोडू तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है!
बाबू चिल्लाया!
ओ
अमने क्या बोला। सभी लोग उसको निकालता था; अमने
भी निकाला। ये इदर हमको गाली देता ए। अम इसका ज़बान खींच लेगा।
बुढ़िया
बीच में फिर बोल उठी, वे जीण जोगयो, अराम
नाल बैठो। ये रब्ब दियो बंदयो, कुछ होश करो।
उसके
होंठ किसी प्रेत के होंठों की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी
फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।
बाबू
चिल्लाए जा रहा था, अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी
मैं उस पठान बनाने वाली की...
तभी
गाड़ी अमृतसर के प्लेटफ़ार्म पर रुकी। प्लेटफ़ार्म लोगों से खचाखच भरा था।
प्लेटफ़ार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँककर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार एक ही
सवाल पूछ रहे थे, “पीछे क्या हुआ है? कहाँ
पर दंगा हुआ है?
खचाखच
भरे प्लेटफ़ार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है।
प्लेटफ़ार्म पर खड़े दो-तीन खोमचेवालों पर मुसाफ़िर टूट पड़ रहे थे। सभी को सहसा
भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर
प्रकट हो गए और खिड़की से झाँक झाँककर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नज़र
पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम-घूमकर देखा, बाबू
डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठनका।
ग़ुस्से से वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे। पर इस बीच डिब्बे के
तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठाकर बाहर निकल गए और अपने पठान
साथियों के साथ गाड़ी के अगले किसी डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक
डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर
पर होने लगा था।
खोमचे
वालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी थी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी
सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अब भी बहुत पीला था और
माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नज़दीक पहुँचा तो मैंने देखा, उसने
अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने उसे वह कहाँ से मिल गई थी।
डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर
बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी
आँख पठानों को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पाकर वह
हड़बड़ाकर चारों ओर देखने लगा।
निकल
गए हरामी, मादर...सबके सब निकल गए! फिर वह सिटपिटाकर उठ खड़ा
हुआ और चिल्लाकर बोला, “तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम
सब नामर्द हो, बुज़दिल!
पर
गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत से नए मुसाफ़िर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष
ध्यान नहीं दिया।
गाड़ी
सरकने लगी तो वह फिर मेरी बग़ल वाली सीट पर आ बैठा। पर वह बड़ा उत्तेजित था और
बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।
धीरे-धीरे
हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी थी। डिब्बे के पुराने मुसाफ़िरों ने भर पेट
पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाक़े में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ
उनके जान-माल का ख़तरा नहीं था।
नए
मुसाफ़िर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर
बाद लोग ऊँघने लगे थे। मगर बाबू अभी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार
मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकलकर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून
सवार था।
गाड़ी
के हिचकोले में मैं ख़ुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी।
बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी
दूसरी ओर को। किसी-किसी वक़्त झटके से मेरी नींद टूटती, और
मुझे सामने की सीट पर अस्तव्यस्त-से पड़े सरदारजी के ख़र्राटे सुनाई देते। अमृतसर
पहुँचने के बाद सरदारजी फिर से सामने वाली सीट पर टाँगें पसारकर लेट गए थे। डिब्बे
में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफ़िर पड़े थे। उनकी वीभत्स मुद्राओं
को देखकर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नज़र पड़ती
तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी
दीवार से पीठ लगाए तनकर बैठा नज़र आता।
किसी-किसी
वक़्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर
निःस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता जैसे प्लेटफ़ार्म पर कुछ गिरा है या जैसे कोई
मुसाफ़िर गाड़ी से उतरा है और मैं झटके से उठकर बैठ जाता।
इसी
तरह जब मेरी एक बार नींद टूटी तो गाड़ी की रफ़्तार धीमी पड़ गई थी और डिब्बे में
अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की से बाहर देखा। दूर, पीछे
की ओर किसी स्टेशन के सिग्नल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टतः गाड़ी कोई
स्टेशन लाँघकर आई थी। पर अभी तक उसने कोई रफ़्तार नहीं पकड़ी थी।
डिब्बे
के बाहर मुझे धीमे अस्फुट स्वर सुनाई दिए दूर ही एक धूमिल सा काला पुंज नज़र आया
नींद की ख़ुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर
मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ
बुझी हुई थीं; लेकिन बाहर लगता था, पौ
फटने वाली है।
मेरी
पीठ पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज़ को खरोंचने की सी आवाज़ आई।
मैंने दरवाज़े की ओर घूमकर देखा । डिब्बे का दरवाज़ा बंद था। मुझे फिर से दरवाज़ा
खरोंचने की आवाज़ सुनाई दी, फिर मैंने साफ़-साफ़
सुना, लाठी से कोई व्यक्ति डिब्बे का दरवाज़ा पटपटा रहा था।
मैंने झाँककर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया
था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग से कपड़े
पहन रखे थे और उसके दाढ़ी थी। फिर मेरी नज़र बाहर की ओर गई। गाड़ी के साथ-साथ एक
औरत चली आ रही थी, नंगे पाँव और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं: बोझ के
कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर
मुड़कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था, आ
जा, आ जा, तू भी आ जा!
दरवाज़े
पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज़ आई, खोलो जी दरवाज़ा, ख़ुदा
के वास्ते दरवाज़ा खोलो।
वह
आदमी हाँफ रहा था, ख़ुदा के लिए दरवाज़ा खोलो। मेरे साथ में औरत जात है।
गाड़ी निकल जाएगी...
सहसा
मैंने देखा, बाबू हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और दरवाज़े के पास जाकर
दरवाज़े में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकालकर बोला, “कौन
है? इधर जगह नहीं है। बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा, “ख़ुदा
के वास्ते, गाड़ी निकल जाएगी...
और
वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डालकर दरवाज़ा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने
लगा।
नहीं
है जगह बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से। बाबू चिल्लाया और उसी क्षण
लपककर दरवाज़ा खोल दिया।
'या
अल्लाह!' उस आदमी के अस्फुट से शब्द सुनाई दिए। दरवाज़ा खुलने
पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।
और
उसी वक़्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ को चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस
मुसाफ़िर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गई। मुझे लगा, जैसे
छड़ के चार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी ज़ोर से डंडे
को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसककर उसकी कोहनी पर आ गई थी।
तभी
सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। झुटमुटे में मुझे उसके
खुले होंठ और चमकते दाँत नज़र आए। वह दो एक बार 'या
अल्लाह' बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा
गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें जो
धीरे-धीरे सकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की
कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच
अँधेरा कुछ और छँट गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें उसके सफ़ेद दाँत
फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कुराया है।
पर वास्तव में त्रास के कारण उसके होंठों पर बल पड़ने लगे थे।
नीचे
पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी मालूम नहीं हो
पाया कि क्या हुआ है? वह अभी भी शायद यही समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका
पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि
उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी
दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर को पकड़-पकड़कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर
रही थी।
तभी
सहसा डंडहरे पर से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे आ
गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो
उन दोनों का सफ़र एक साथ ख़त्म हो गया। बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे
के खुले दरवाज़े में बुत-का-बुत बना खड़ा था। लोहे की छड़ अभी उसके हाथों में थी।
मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक
नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली
हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सटकर बैठा उसकी ओर देखे
जा रहा था।
फिर
वह आदमी खड़े-खड़े हिला किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एकदम आगे बढ़ आया और दरवाज़े में
से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर पटरी के किनारे
अँधियारा पुंज-सा नज़र आ रहा था।
बाबू
का शरीर हरकत में आया, एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया, फिर
घूमकर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफ़िर सोए पड़े थे। मेरी ओर
उसकी नज़र नहीं उठी।
थोड़ी
देर तक वह खड़ा रहा, फिर उसने घूमकर दरवाज़ा बंद कर दिया। उसने ध्यान से
अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने हाथों की ओर देखा।
फिर एक-एक करके अपने हाथों को नाक के पास ले जाकर उन्हें सूँघा, मानो
जानना चाहता हो कि उसके हाथों से ख़ून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव
चलता हुआ आया और मेरी बग़ल वाली सीट पर बैठ गया।
धीरे-धीरे
झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ़-सुथरी सी रोशनी चारों ओर फैलने
लगी। किसी ने ज़ंजीर खींचकर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़
खाकर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से
हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।
सरदारजी
बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बग़ल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की
ओर देखे जा रहा था। रात भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे।
अपने सामने बैठा देखकर सरदार उसके साथ बतियाने लगा, बड़े
जीवट वाले हो बाबू! दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो
। बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डरकर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए, यहाँ
बने रहते तो एक न एक की खोपड़ी तुम ज़रूर दुरुस्त कर देते... और सरदारजी हँसने
लगे।
बाबू
जवाब में मुस्कुराया, एक वीभत्स-सी मुसकान और देर तक सरदार के चेहरे की ओर
देखता रहा।
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