शनिवार, 5 दिसंबर 2020

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की निबन्ध-कला

          आचार्यरामचन्द्र शुक्ल (1884-1941 ई.) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार हैं। चिन्तामणि में संकलित निबन्धों में शुक्लजी की निबन्ध कला का पूर्ण उत्कर्ष दिखाई देता है। ये निबन्ध विचार प्रधान हैं या भाव प्रधान है इस विषय पर विचार करने से पूर्व हमें शुक्ल जी के इस कथन पर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए जो उन्होंने 'चिन्तामणि' की भूमिका में 'निवेदन' शीर्षक के अन्तर्गत लिखा है, "इस पुस्तक में मेरी अन्तर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश हैं। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि पर हृदय को भी साथ लेकर।"

       शुक्ल जी के इस कथन का अभिप्राय यह है कि उनके निबन्धों में हृदय और बुद्धि का समन्वय किया गया है; यद्यपि उनके निबन्ध विचार-प्रधान ही अधिक है तथापि उनमें हृदय तत्व भी स्थान-स्थान पर उपलब्ध होता है।

     भाषा की पूर्ण-शक्ति का विकास निबन्ध में दिखाई पड़ता है। शुक्ल जी के अनुसार "शुद्ध विचारात्मक निबन्धों का चरम-उत्कर्ष वहीं होता है जहां एक-एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर ठूसे गए है और एक-एक वाक्य इसी सुसम्बद्ध विचार खण्ड के लिए हो।"

     विचारात्मक निबन्ध में केवल विचारों की झलक या बौद्धिक विवेचक ही पर्याप्त नहीं होता अपितु हृदय के भावों की झलक भी उसमें दिखाई पड़ती है। संक्षेप में शुक्ल जी की निबन्ध कला में हमें अग्रलिखित विशेषताओं का निदर्शन मिलता है-

1. विचारों की सम्पन्नता और सुसम्बद्धता- शुक्ल जी के निबन्ध मौलिक विचारों से सम्पन्न हैं। उनमें विचारों की गहनता और प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। उनका प्रत्येक वाक्य सुविचारित, सुचिन्तित तथा व्यंजक होता है। इस प्रकार उनके निबन्धों का प्रत्येक अनुच्छेद गम्भीर विचारों से ओत-प्रोत दिखाई देता है। यह भी उल्लेखनीय है कि शुक्ल जी के निबन्धों में वैचारिक सुसम्बद्धता उनके निबन्धों की प्रमुख विशेषताएं हैं। यथा-"श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब पूज्य भाव की बुद्धि के साथ-साथ श्रद्धाभाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो तब हृदय मे भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए


2. मौलिक चिन्तन-शुक्ल जी एक मौलिक चिन्तक है। इसका पता उनके निबन्धों से चलता है। मनोविकार सम्बन्धी निबन्धों में वे जिस मनोविकार का वर्णन करते हैं उसके प्रत्येक पक्ष पर मौलिक ढंग से विचार करते हैं, उसका विश्लेषण इतने सूक्ष्म ढंग से करते हैं कि उस मनोविकार का प्रत्येक पक्ष उजागर हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनोविकारों के विश्लेषण में वे मनोविज्ञान के पण्डितों को भी मात दे रहे है। इसी प्रकार काव्य समीक्षा सम्बन्धी निबन्धों में उनका मौलिक चिन्तन दिखाई देता है। उदाहरण के लिए 'कविता क्या है' निबन्ध में काव्य की परिभाषा उन्होंने मौलिक ढंग से की है। उनके अनुसार, "हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।"

3. विचार विश्लेषण एवं विषय विवेचन क्षमता- शुक्ल जी के निबन्ध विचार प्रधान हैं। विषय के अनुरूप विश्लेषण की अद्भुत क्षमता उनके निबन्धों की प्रमुख विशेषता कही जा सकती है। शुक्ल जी ने भारतीय काव्यशास्त्र और पाश्चात्य समीक्षा-शास्त्र के गहन अनुशीलन के उपरान्त सभीक्षा की एक नई पद्धति विकसित की जिसमें सभी विचारों की सम्यक परीक्षा करने के साथ-साथ वे अपना मौलिक चिन्तन भी योजना पूर्वक प्रस्तुत करते हैं। डॉ. देवीशंकर अवस्थी के अनुसार, "किसी भी मत, विचार या सिद्धान्त को उन्होंने बिना अपने विवेक की कसौटी पर कसे स्वीकार नहीं किया। यदि कोई विचार उनकी ट्ृष्टि को नहीं जंचा तो इसके प्रत्याख्यान में तनिक भी मोह नहीं दिखाया।"

4. भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास-शुक्ल जी के निबन्धों की भाषा विषय के अनुरूप प्रौढ़, गम्भीर एवं साहित्यिकता का पुट लिए हुए है। वह परिष्कृत एवं संयत है उसमें भाव प्रकाशन की अद्भुत क्षमता है। प्रत्येक शब्द अपने स्थानों पर ऐसा जड़ा हुआ है कि उसे वहां से हटा पाना असम्भव है, इसी प्रकार उनकी वाक्य रचना निर्दोष व्याकरण-सम्मत और उपयुक्त है। भाषा की शक्ति का परिचय मनोविकारों की परिभाषा में दिखाई पड़ता है जहां सूत्रात्मक शैली का प्रयोग है और एक भी शब्द फालतू नहीं है यथा-"श्रद्धा महत्व की आनन्दपूर्ण स्वीकृति के साथ पूज्य बुद्धि का संचार है'"

5. प्रकृति प्रेम-शुक्ल जी के निबन्धों में प्रकृति प्रेम का परिचय अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। ऐसे स्थलों पर हृदय का उल्लास देखते ही बनता है। उदाहरण के लिए, निम्न पंक्तियों में उनके प्रकृति प्रेम की व्यंजना हुई हैं; यथा "आंखे खोलकर देखो खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच बह रहे हैं, टेसू के फूल से बनस्थली कैसी लाल हो रही है, चौपायों के झुण्ड चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे है और अमराइयों के बीका में गांव झांक रहे हैं।"

6. हास्य एवं व्यंग्य की प्रधानता- यद्यपि शुक्ल जी हे निबन्ध विचार-प्रधान हैं तथापि भावाकर्षक स्थलों पर उनका हृदय पक्ष प्रबल हो गया है। यही कारण है कि विषय निरूपण करते समय जहां-तहां शुक्ल जी ने अपने निबन्धों में हास्य-व्यंग्य का पुट भी दिया है। उदाहरण के लिए, लोभी व्यक्तियों पर व्यंग करते हुए वे कहते हैं, "मोटे आदमियो तुम जरा से दुबले हो जाते अपने अन्देशे से ही सही, तो न जाने कितनी ठठरियों पर मांस चढ़ जाता।"

7. देश प्रेम एवं मानव प्रेम-शुक्ल जी के निबन्धों में देश प्रेम और मानव प्रेम की अनेक स्थलो पर व्यंजना हुई है। उनका यह देश प्रेम दिखावा मात्र नहीं है अपितु उसके हृदय का सच्चा भाव झलकता दिखाई देता है। वे यह मानते हैं कि जिसे अपने देश से प्रेम होगा वह अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, पौधे आदि सबसे प्रेम करेगा। यथा-'यदि किसी को अपने देश ी से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता-पेड़-त्ते बन-पर्वत-नदी ब निर्झर सबसे प्रेम होगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं जानते कि किसानों की झोपड़ी के अन्दर क्या हो रहा है वे यदि दस बने-उने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का पता कर देश-प्रेम का दाबा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि बिना परिचय का यह प्रेम कैसा?" 

     शुक्ल जी का दृष्टिकोण मानवतावादी था। 'मानस की धर्म भूमि’ निबन्ध में उन्होंने मानवतावाद की सुन्दर व्याख्या की है। भा जो अत्याचार का विरोध और न्याय का समर्थन नहीं करता उसकी मानवता मर चुकी है।

        उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध विचार प्रधान हैं किन्तु उनमें हृदय भी अपना प्रवृत्ति के अनुरूप भावात्मक और सरल स्थलों पर रमता रहा जिससे उनके निबन्ध सरस और रोचक हो गए हैं। हिन्दी साहित्य म आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध वस्तुतः मानदण्ड बन गए अन्य निबन्धकारों के निबन्धों की आलोचना हम शुक्ल जा फा कसौटी मानकर किया करते हैं। यह इस बात का प्रमाण है।व शुक्ल जी की निबन्ध कला अप्रतिम है, अद्वितीय है आर सर्वश्रेष्ठ है।

 - गोबिंद कुमार यादव

                                                      बिरसा मुंडा कॉलेज

                                                         6294524332




रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि

                 रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि  

                                                    -  गोबिंद कुमार यादव            

        मार्क्सवादी समीक्षकों में डॉ. रामविलास शर्मा का नाम अग्रगण्य है। मार्क्सवादी समीक्षा का तात्पर्य उस समीक्षा से है जिसमें 'मार्क्सवाद' को आधार बना कर साहित्य की समीक्षा की जाती है। ऐसे आलोचकों को हिन्दी में प्रगतिवादी समीक्षक भी कहा जाता है। प्रगतिवाद का हिन्दी में प्रारम्भ 1936 ई. के आसपास हुआ अतः प्रगतिवादी समीक्षा का प्रारम्भ भी तभी से माना जा सकता है। मार्क्सवादी समीक्षकों में प्रमुख है-शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, अमृतराय, नामवर सिंह और डॉ. रामविलास शर्मा इनमें से डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि सर्वाधिक पैनी, स्वच्छ एवं विश्लेषणात्मक है।

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       कार्ल मार्क्स ने समाज को दो वर्गों में विभक्त किया- शोषक और शोषित। पूंजीवादी अपनी पूंजी के बल पर श्रमिकों का शोषण करता है अतः समाज में वर्ग संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। मार्क्सवादी समीक्षा में वर्ग संघर्ष, सामाजिक समरसता, समाजोत्थान, शोषितों के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए साहित्य को सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में देखा गया।

       डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक कृतियों में प्रमुख हैं-प्रगति-प्रगति और परम्परा, प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, आस्था और सौन्दर्य, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना, मार्क्सवाद और प्राचीन साहित्य का मूल्यांकन, निराला की साहित्य साधना, भाषा और समाज, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण।

       डॉ. रामविलास शर्मा की समीक्षा पद्धति की सामान्य विशेषताओं का निरूपण निम्न बिन्दुओं में किया जा सकता है:

1. डॉ. शर्मा ने मार्क्सवादी सिद्धान्तों के अनुरूप वर्ग संघर्ष एवं समाज में मानव की आर्थिक स्थिति को विशेष महत्व दिया है तथा यही तत्व मार्क्सवादी समीक्षा के मूल आधार हैं।

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2. डॉ. शर्मा यह मानते हैं कि साहित्यकार को वर्गभेद पर आधारित समाज की पहचान होनी चाहिए। वैचारिक स्तर पर वे मार्क्सवाद को नहीं छोड़ सकते और कहते हैं-"पार्टीजन साहित्यकार बनकर ही हम ऐसे साहित्य का निर्माण कर सकेंगे जो अगली पीढ़ियों के लिए मूल्यवान हो।|"

3. 'निराला की साहित्य साधना' में उन्होंने एक ओर तो निराला के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर निराला की काव्य प्रतिभा, रचना प्रक्रिया, भाषा एवं काव्य सौन्दर्य को भी उद्घाटित किया है।

4. डॉ. रामविलास शर्मा की एक अन्य महत्वपूर्ण कृति है-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना। इसमें उन्होंने शुक्ल जी की लोकहृदय में लीन होने की कसौटी पर जोर देते हुए उनके अन्तर्विरोधों को भी उजागर किया है।

5. रामविलास जी के प्रारम्भिक समीक्षा ग्रन्थों में इनका तेवर आक्रामक रहा है, किन्तु परवर्ती काल में लिखे गए ग्रन्थों में वह आक्रोश नहीं झलकता। इनमें संयम, विवेक एवं सन्तुलन विद्यमान है।

6. नई कविता के प्रति डॉ. रामविलास शर्मा का रुख कुछ-कुछ उसी प्रकार का है जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का छायावाद के प्रति था। इस नकारात्मक रुख के कारण वे नयी कविता के प्रति न्याय नहीं कर पाए है।

7. जो विचार डॉ. शर्मा की मान्यताओं के उन्हें वे स्वीकार करते हैं, किन्तु जो विचार उनकी मान्यताओं के प्रतिकूल हैं, उन्हें वे किसी स्थिति में स्वीकार नहीं करते। वे समझौतावादी समीक्षक नहीं हैं।

8. 'तुलसी के सामन्त विरोधी मूल्य' नामक रचना में उन्होंने तुलसी के वर्ग चरित्र को प्रस्तुत किया। उन्होंने विद्वत्तापूर्वक, यह सिद्ध किया कि तुलसी शोषितों के साथ हैं तथा शोषण के विरोधी हैं, क्योंकि तुलसी ने स्वयं शोषण को झेला था।

9. भाषा के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते डॉ. शर्मा लिखते हैं-"भाषा एक हथियार है जिससे हम प्रतिगामी शक्तियों पर प्रहार कर सकते हैं। क्रान्ति के लिए आवश्यक है। अपनी शत्रु रूपी प्रतिगामी शक्तियों को पहचानना।"

10. डॉ. शर्मा अपनी समीक्षा पद्धति में न तो की तरह शालीन हैं और न ही द्विवेदी जी की भांति व्यंग्यात्मक अपितु वे आक्रामक अधिक हैं। प्रतिकूल विचारों पर वे निर्मम प्रहार करते हैं।

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11. विवादास्पद होते हुए भी डॉ. शर्मा मार्क्सवादी समीक्षा एवं मार्क्सवादी चिन्तन के प्रकाश स्तम्भ रहे हैं।

12. डॉ. नगेन्द्र ने रामविलास शर्मा के योगदान पर प्रकाश डालते हुए तथा उनकी कृतियों का महत्व प्रतिपादित करते लिखा है : "पुनर्मूल्यांकन यदि आलोचना के प्रमुख कार्यों में से एक है, तो रामविलास शर्मा ने निश्चय ही हिन्दी साहित्य के अनेक लेखकों-भारतेन्दु, प्रेमचन्द, शुक्ल जी एवं निराला का पुनर्मूल्यांकन कर एक तरह से हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध आलोचनात्मक इतिहास प्रस्तुत करने का काम किया है।"

13. डॉ. शर्मा की मान्यता है कि जिस समाज में वर्गभेद कायम है उसमें वर्गों से परे होकर किसी शाश्वत साहित्य की रचना नहीं की जा सकती।

14. डॉ. शर्मा ने मार्क्सवादी दृष्टि से समूचे हिन्दी साहित्य की परम्परा की नवीन व्याख्या की और इस प्रकार मार्सवादी समीक्षा की शक्ति एवं सामर्थ्य का परिचय दिया।

15. डॉ. रामविलास शर्मा की मान्यता है कि साहित्य का प्रभाव अपने भावमूलक स्वभाव के कारण दर्शन एवं विज्ञान की अपेक्षा अधिक पड़ता है। वह मनुष्य को श्रेष्ठ विचार देता है और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने की प्रेरणा देकर वह हमारे मनोबल को दृढ़ करता है। यही नहीं अपितु साहित्य हमारे चरित्र का भी निर्माण करता है।

16. डॉ. शर्मा प्रयोगवाद एवं नयी कविता के हैं यद्यपि अज्ञेय द्वारा प्रकाशित 'तार सप्तक' के सात कवियां में उन्हें भी स्थान मिला है। वे लिखते हैं- 'विषयवस्तु मे निकम्मापन, निर्थकता, निरुद्देश्यता... लिए जनजीवन या तो है नहीं या है तो उन्हीं जैसा विकृत और निरुद्देश्य।"

17. डॉ. शर्मा ने साहित्य में सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल दिया। इसी कारण वे प्रेमचन्द के प्रशंसक थे। उनका स्पष्ट धारणा थी कि प्रगतिशील साहित्य युग की मांग को पूरा करने वाला साहित्य है।

18. डॉ. रामविलास शर्मा ने लेनिन की भाषा को आदर्श मानते हुए अपनी भाषा सम्बन्धी दृष्टिकोण का परिचय इन शब्दों में दिया है-"शैली की स्पष्टता, शब्दों का सधा प्रयोग, हास्य-विनोद व व्यंग्य के छीटे, क्रोधावेश में जलते वाक्य, कहावते, मुहावरे, पुराने लेखकों की रचनाओं के उदाहरण लेनिन की शैली की वस्तु है जो बताती है कि इस महान क्रान्तिकारी बिचारक ने भाषा व शब्दों से अपनी व्यंजना के माध्यम पर साहित्य के रूप पर किस प्रकार अधिकार कर लिया था।"

      उक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते है कि डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी साहित्य के समर्थ आलोचक हैं तथा उनकी समीक्षा पद्धति प्रगतिशील चेतना से प्रभावित है। माक्क्सवादी सिद्धान्तों पर आधृत उनकी कृतियों ने हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान किया है।


गोबिंद कुमार यादव
बिरसा मुंडा कॉलेज
6294524332


    



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