आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित हिंदी साहित्य का आदिकाल सन 1952 ईस्वी में पहली बार प्रकाशित हुआ जो समय-समय पर दिए गए उनके व्याख्यानों का संग्रह है। साहित्य इतिहास संबंधी यह उनकी तीसरी पुस्तक है। इससे पहले ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ और ‘हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास’ प्रकाशित हो चुका था। इस पुस्तक में उन्होंने आदिकाल के नामाकरण और प्रारंभ से संबंधित विवादों से मुक्ति का मार्ग ढूंढने का प्रयास किया है। अपभ्रंश से हिंदी की उत्पत्ति और उसके विकास की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपनी इस पुस्तक में की है। दरअसल हिंदी साहित्य का आदिकाल एक इतिहास ग्रंथ ना होकर व्याख्यानों का संग्रह है जिसमें पांच व्याख्यान संग्रहित है। यह पांचो व्याख्यान अपने में एक शोध ग्रंथ है जिसमें उन्होंने साहित्य के प्रारंभ का एवं उसके प्रवृत्तियों के मूल्यांकन का प्रयास किया है। इस पुस्तक में उन्होंने आदिकालीन साहित्य के काव्य-रूपों के उद्भव और विकास का विस्तृत विवेचन किया है। आदिकाल के नामाकरण, काव्य रूप और प्रवृत्ति को लेकर जो व्याख्या की जा रही थी उस पर द्विवेदी जी ने विराम चिन्ह लगाने का प्रयास किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास की पहली सुसंगत और क्रमबद्ध व्याख्या का श्रेय अवश्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल को जाता है, मगर उसकी कई गुम और उलझी हुई महत्त्वपूर्ण कड़ियों को खोजने और सुलझाने का यश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। अगर द्विवेदी न होते तो हिंदी साहित्य का इतिहास अभी तक अपनी व्याख्या संबंधी कई एकांगी धारणाओं का शिकार रहता और उसकी परंपरा में कई छिद्र रह जाते। इतिहास के प्रति एक अन्वेषक और प्रश्नाकुल मुद्रा, परंपरा से बेहद गहरे सरोकार तथा मौलिक दृष्टि के मणिकांचन योग से बना था। हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक व्यक्तित्व और उन्होंने साहित्येतिहास और आलोचना को जो भूमि प्रदान की, हिंदी की आलोचना आज भी वहीं से अपनी यात्रा शुरू करती दिखती है। खास तौर पर हिंदी साहित्य के आदिकाल की पूर्व व्याख्याएँ उन्हें शंकित बनाती रहीं और अपने व्यापक चिंतन से अपनी शंकाओं को उन्होंने साबित किया। हिंदी साहित्य के आदिकाल के मूल्यांकन से जुड़े उनके व्याख्यान आज भी हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। जब भी हिंदी साहित्य के इतिहास और उनकी परंपरा की बात की जाएगी, ये व्याख्यान एक प्रकाश-स्तंभ की-सी भूमिका निभाते रहेंगे।
आदिकाल हिंदी साहित्य का सबसे अधिक विवादित काल रहा है। द्विवेदी जी ने एक तरह से उन विवादों को समाप्त किया और आदिकालीन साहित्य के उद्धार का प्रयास किया। प्रथम संस्करण की भूमिका में शिवपूजन सहाय लिखते हैं- “हिंदी साहित्य का आदिकाल अब तक अंधकार के आवरण ढका सा रहा है। आवरण को हटाकर प्रायः अंधकार में प्रकाश फैलाने का प्रथम प्रयास संभवतः आचार्य द्विवेदी जी ने ही किया।“1 हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत 1050 अर्थात 1000 ई. के आसपास मानी जाती है। यह समय भारतीय राजनीति में उथल-पुथल का था। आचार्य द्विवेदी जी ने भी इसे भारत के सबसे ज्यादा विरोध और व्याघातों का समय माना है- “शायद ही भारतवर्ष के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधी और व्याघातों का युग कभी आया होगा।“2 यह समय हिंदी साहित्य को भी अत्यंत प्रभावित करता है।
आदिकाल के संदर्भ में यह पुस्तक अत्यंत व्यवस्थित और प्रमाणित है। आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास का जो ढांचा तैयार किया था उसका एक और आयाम है, हिंदी साहित्य का आरंभिक काल जिन शंकाओं, अनुमानों पर था, उससे मुक्ति का एक प्रयास है। इसमें द्विवेदीजी साहित्यिक कृतियों की भाषा की दृष्टि से और साहित्य की दृष्टि से व्याख्या करते हैं तथा उसके महत्व का प्रतिपादन करते हैं। उनका मानना है यह हिंदी साहित्य के उद्भव का काल है, इसलिए इस काल की कोई भी रचना अवज्ञा और उपेक्षा का पात्र नहीं हो सकती है- “इस काल की सभी पुस्तकें चाहे वे धार्मिक उपदेश की हो, वैद्दक की हो, महात्म्य की हो, वह कुछ न कुछ साहित्यिक रूप को स्पष्ट करने में अवश्य सहायता पहुचेगी। इस काल में साहित्य क्षेत्र को यथासंभव व्यापक बनाकर देखना चाहिए।“3
अपने प्रथम व्याख्यान में ही द्विवेदी जी आदिकालीन उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास करते है। शुक्ल जी ने व्यवस्थित इतिहास तो लिखा किन्तु कुछ शंकाए भी शेष रह गयी थी जिसे द्विवेदी जी ने अपने इस ग्रंथ में सुलझाया है। वे इस काल को ‘भारतीय विचारो के मंथन का काल’ मानते है। आचार्य शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में जिन ग्रंथो को धार्मिक कहकर इतिहास की परिधि से बहार निकल दिया था द्विवेदीजी उन्हें आदिकालीन साहित्य में स्थान देते है क्योंकि उनका मानना है – “धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्यत्व का बाधक नही समझा जाना चाहिए।‘4 यही नही उनका स्पष्ट मन्ना है कि सम्पूर्ण आदिकाल के साहित्य में धार्मिक और आध्यात्मिक प्रभाव देखा जा सकता है और इस प्रकार अगर हम इन साहित्य को निकलते गये तो संपूर्ण आदिकालीन साहित्य को ही बहार करना पड़ेगा –“केवल नैतिक धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेश देकर यदि हम ग्रंथों को साहित्य सीमा से निकालने लगेंगे तो हमें आदिकाल से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी रामायण से भी अलग होना पड़ेगा कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दंडवत करके विदा कर देना होगा।“5
हिंदी साहित्य के आदिकाल का सटीक मूल्यांकन वही कर सकता है जो भाषा का पारखी हो और द्विवेदीजी निश्चय ही भाषा के पारखी इतिहासकार थे। उन्हें अपभ्रंश भाषा का पूर्ण ज्ञान था। इस समय हिंदी धीरे-धीरे अपना रूप ग्रहण कर रही थी और अपभ्रंश अपना रूप खो रही थी अर्थात भाषा के स्तर पर यह संक्रमण का काल था। इसलिए आदिकाल के मूल्यांकन के लिए भाषा का ज्ञान आवश्यक था। हिंदी भाषा किस प्रकार अपना रूप ग्रहण कर रही थी इनका उल्लेख करते हुए लिखते है – “स्पष्ट ही दसवीं से तेरहवीं शताब्दी तक की बोलचाल कि भाषा में संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था।6 जिसे द्विवेदीजी इस काल की भाषा की प्रमुख प्रवृति मानते है –“इस काल की भाषा की प्रमुख प्रवृति थी- बोलचाल में तत्सम शब्दो का प्रचार।“7 जैसा की स्पष्ट है यह काल भाषा की दृष्टि से संक्रमण का काल है तो निश्चय ही इस काल में अपभ्रंश साहित्य भी प्रचुर लिखा गया । किन्तु 10वीं शताब्दी आते आते अपभ्रंश के रूप में परिवर्तन आने लगा था जिसे गुलेरी जी ने पुरानी हिंदी कहा है। द्विवेदीजी इसे अपभ्रंश का ही बढ़ावा मानते है –“दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते है अपभ्रंश का ही बढ़ावा है। इसी अपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते है और कुछ लोग पुरानी हिंदी।“8 भाषा के साथ काव्य रूप की चर्चा इस ग्रंथ की एक बड़ी विशेषता है। इसमें आचार्य द्विवेदी किसी भी पुस्तक की भाषा और काव्य रूप का भी विस्तृत वर्णन करते है। आदिकाल के उपलब्ध प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करते हुए उसके महत्त्व पर प्रकाश डालते है। कीर्तिलता के संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते है –“भाषा के अध्ययन की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्व है ही, काव्य रुप के अध्ययन की दृष्टि से भी यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है।“9 यही स्थिति वर्ण रत्नाकर पुस्तक के साथ भी है जो आदिकालीन लोक साहित्य की प्रतिध्वनि था। द्विवेदीजी इस ग्रंथ के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखते है-“प्राचीन मैथिली भाषा के अध्ययन की दृष्टि से तो यह पुस्तक अत्यंत उत्तम है ही, परंतु उस समय की सामाजिक, रीति-नीति, काव्य-रूढ़ि और काव्य-रूप के अध्ययन की दृष्टि से भी यह बहुत उपयोगी है।“10
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने वीरगाथा काल का नामकरण करते हुए उनसे प्राप्त ग्रंथो को संदिग्ध मन है किंतु द्विवेदीजी आदिकाल के नामकरण में जिन ग्रंथों का उल्लेख करते है उसकी प्रमाणिकता के साथ उस ग्रन्थ के भाषागत ढांचा का भी उल्लेख करते है। इसी प्रकार काल प्रवृति का निर्धारण करते समय भी शुक्लजी जिन ग्रंथों का उल्लेख करते है उनमें से ज्यादातर अप्राप्य, अप्रामाणिक और परवर्ती काल की सिद्ध होती है। द्विवेदीजी काल प्रवृति का निर्धारण ग्रंथों के आधार पर न करके उस काल की प्रेरणादायक वस्तु को मानते है –“काल प्रवृति का निर्णय प्राप्य ग्रंथों की संख्या के आधार पर ही हो सकता है।“11
अपने प्रथम व्याख्यान में द्विवेदीजी अपभ्रंश के उपलब्ध साहित्य, उसके काव्य-रूप, नामकरण के आधार ग्रंथों एवं उसके नामकरण के आवश्यक अंगों पर चर्चा करते है। जैन ग्रंथों का उल्लेख वे हिंदी साहित्य आदिकाल की परंपरा को समझने के रूप में करते है। हिंदी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहास आचार्य शुक्ल ने लिखा था जिसमें उन्होंने प्रवृत्तियों के आधार पर वीरगाथा काल नाम दिया था। जिसे द्विवेदीजी अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर आदिकाल कहते है। आदिकालीन साहित्य को उसके काव्य रूपों के विकास की दृष्टि से अध्ययन करते हैं क्योंकि यह काल हिंदी भाषा के उद्भव का काल है हिंदी के कवियों के उद्गम का काल है
द्वितीय व्याख्यान में आचार्य द्विवेदी जी अपभ्रंश और भाषा काव्य के रूप पर चर्चा करते हैं। पुराने रूपों में किस प्रकार की विकृतियां देखने को मिलती है इसका विस्तृत वर्णन उन्होंने किया है। मात्रा के प्रयोग की दृष्टि पर इस काल के कवियों की पूर्ण प्रवृत्तियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। अपभ्रंश के काव्य रूपों का विस्तृत वर्णन करते हुए उसका आगे की भाषा काव्य से किस प्रकार का संबंध है इसे स्पष्ट करते हैं। भाषा की दृष्टि से संपूर्ण अपभ्रंश काव्य एवं आदिकालीन प्रमाणित ग्रंथों की चर्चा करते हैं तथा उसकी प्रमाणिकता और अप्रमाणिकता एवं उसका भाषा शास्त्रीय अध्ययन करते हैं। अपभ्रंश काव्य के क्षेत्र का वर्णन करते हुए स्पष्ट करते है कि “ठीक मध्यदेश में बना कोई अपभ्रंश काव्य नही मिलता। अधिकांश पुस्तके किनारे पर स्थित प्रान्तों से ही प्राप्त हुई है।“12 और इस न मिलने के कारण को स्पष्ट करते हुए वे कहते है कि इसका ऐतिहासिक कारण है। इस काल में पुस्तकें तीन प्रकार से रचीत हुई पहला राज्याश्रय में, दूसरा धर्माश्रय में और तीसरा लोक आश्रय में। इसमें भी सबसे प्रमुख है राज्याश्रय। इस समय केंद्रीय सत्ता में गाहद्वारो का शासन था जिसे कुछ विद्वानों ने दक्षिण से आया माना है जो संस्कृत प्रेमी था यही कारण है कि भाषा काव्य मध्यदेश में काम देखने को मिलता है।
अपने तृतीय व्याख्यान में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदिकाल के सबसे विवादित ग्रंथ पृथ्वीराज रासो को लेकर अपने मत व्यक्त करते हैं वह भी पूरी प्रमाणिकता के साथ अपने विचार प्रकट करते हैं अपने विचारों की प्रमाणिकता के लिए तत्कालीन समय के शिलालेखों और इतिहास की भी छानबीन करते हैं। रासो ग्रन्थ में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उसके आधार पर वे उसकी व्याख्या करते हैं। दरअसल रासो ग्रंथ अपभ्रंश भाषा में ही लिखा गया था क्योंकि रासो की भाषा दमोह वाली शिलालेख से मिलती जुलती है –“इस तथ्य से यह अनुमान पुष्ट होता है कि रासो में भी कुछ उसी प्रकार के अपभ्रंश में लिखा गया था जिस प्रकार के अपभ्रंश ग्यारहवीं सजाताब्दी वाला दमोह वाला शिलालेख लिखा गया था।“13 आचार्य शुक्ल रासो को एकदम जाली पुस्तक कहते है किंतु द्विवेदीजी ने उसके काव्यरूपो, एवं उसके लघुत्तम संस्करण के आधार पर उसे अर्धप्रमानिक माना है। “अब यह मान लेने में किसी को आपत्ति नही ही कि रासो एकदम जाली पुस्तक नही है।“14 द्विवेदीजी ने आदिकालीन कृतियों को साहित्यिक दृष्टि से देखने के पक्ष में है क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर एक व् कृति प्रामाणिक नही ठहरती-“सभी संस्करण परवर्ती है, सबमे क्षेपक की सम्भावना बानी हुई है।“15 रासो के सन्दर्भ में तो वे इतना भी कह देते है कि-“रासो में इतिहास की संगति खोजना ही बेकार है।“15
हिंदी में कथा की परंपरा की व्याख्या अगर किसी इतिहास ग्रन्थ में मिलती है तो वह द्विवेदी जी द्वारा रचित हिंदी साहित्य का आदिकाल ही है। कादिकल में जितने भी चरित काव्य लिखे गए वे सभी कथा की परंपरा में ही आते है। किंतु यह कथा शब्द दो रूपो में में व्यक्त हुआ है “प्रायः सभी चरित काव्यो ने अपने को कथा कहा है। पुराने साहित्य में कथा शब्द का व्यवहार स्पष्टरूप से दो अर्थो में हुआ है। एक तो साधारण कहानी के अर्थ में और दूसरा अलंकृत काव्यरुप के अर्थ में।“16 आदिकालीन साहित्य में ऐतिहासिक काव्य किस प्रकार लिखे जाते थे इसका स्पष्टीकरण भी इस ग्रंथ में हुआ है –“ऐसा जान पड़ता है कि उन दिनों ऐतिहासिक व्यक्ति गुणानुवाद मूलक चरित-काव्य इसी ढंग (श्रोता वक्त परंपरा/पूर्व कथा योजना) से लिखे जाते थे।“17 पृथ्वीराज राजो आदिकाल का सबसे विवादित ग्रन्थ रहा है और इसपर द्विवेदीजी की व्याख्या सबसे महत्वपूर्ण बानी है। उन्होंने रासो शब्द की व्युत्पत्ति रासक से मानी है जो एक प्रकार का गेरूप है। साथ ही रासो को वे शुक और शुकी संवाद में लिखा हुआ मानते है। “ रासो के वर्तमान रूप को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि मूल रासो में भी शुक इर शुकी के संवाद की ऐसी ही योजना रही होगी। मेरा अनुमान है कि इस मामूली से इंगित को पकड़कर हम मूल रासो के कुछ रूप का अंदाजा लगा सकते है।“18 इसी प्रकार कीर्ति लाता भी भृंग भृंगी संवाद के रूप में लिखी गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि आदिकालीन साहित्य में वक्त श्रोता परंपरा थी।
अपने चतुर्थ व्याख्यान में कथानक रूढ़ियों के आधार पर प्रिथीराज रासो एवं पध्मावत अदि सभी कृतियों का मूल्यांकन करते हैं। पृथ्वीराज रासो के प्रत्येक घटना को भारतीय कथानक रूढ़ियों से जोड़कर देखते है। इस व्याख्यान में पृथ्वीराज रासो का विस्तृत विवेचन है तथा आदिकालीन काव्य रूढ़ियों के साथ इसका समंजन किया गया है। प्रारम्भ में जिस भारतीय काव्य के ऐतिहासिक चरितों की प्रवृत्तियो का वर्णन है उसके साथ पृथ्वीराज रासो की संगति की भी जाँच करते है।
पंचम व्याख्यान आदिकालीन काव्यरूपो पर विस्तृत विवेचन है कादिकल और परवर्तीकाल साहित्य के काव्यरूपो की तुलना करके उसके रूप पर विस्तृत विवेचन हुआ है।
निश्चय ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित हिंदी साहित्य का आदिकाल हिंदी के प्रारंभ का व्यवस्थित इतिहास है। उन्होंने हिंदी के प्रारंभ उसके विकास एवं उसकी प्रवृत्तियो से संबंधित अनेक शंकाओं का समाधान किया है। हिंदी के उद्भव में किस प्रकार भाषागत ढांचा बदल रहा था साथ ही काव्य रूपो का किस प्रकार विकास हो रहा था इसका विस्तृत व्योरा देते है। हिंदी साजित्या का आदिकाल निश्चय ही मिल का पत्थर साबित हुआ है हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथो में । यह ग्रन्थ आदिकाल का प्रामाणिक दस्तावेज है। इस पुस्तक के माध्यम से द्विवेदी जी ने अनेक ग्रंथो को भी साहित्य की कोटि में मान्यता दिलवाई जिसे धार्मिक या आध्यात्मिक कह कर साहित्य की कोटि से बाहर कर दिया गया था तथा अनेक नए ग्रंथो को भी प्रकाश में लाते है जो अबतक उपेक्षा का शिकार थे। साहित्य के जिज्ञासुओं एवम हिंदी भाषा के जिज्ञासुओं के लिए यह ग्रन्थ अत्यंत उपयोगी है।
गोबिन्द कुमार यादव
बिरसा मुंडा कॉलेज
दार्जीलिंग, पश्चिम बंगाल, 734427
मो.-6294524332
ईमेल – gobind9614@gmail.com
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