सोमवार, 19 जून 2023
अनुवाद : अर्थ, स्वरुप, प्रकृति, आवश्यकता
अनुवाद : अर्थ, स्वरुप, प्रकृति
· प्रश्न - अनुवाद का आशय स्पष्ट किजिए।
किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद (Translation) कहलाता है। 'अनुवाद' का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है - पुनः कथन; एक बार कही हुई बात को दोबारा कहना। संस्कृत के ’वद्‘ धातु से ’अनुवाद‘ शब्द का निर्माण हुआ है। ’वद्‘ का अर्थ है बोलना। ’वद्‘ धातु में 'अ' प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है 'वाद' जिसका अर्थ है- 'कहने की क्रिया' या 'कही हुई बात'। 'वाद' में 'अनु' उपसर्ग जोड़कर 'अनुवाद' शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना। इसका प्रयोग पहली बार मोनियर विलियम्स ने अँग्रेजी शब्द ट्रांसलेशन (translation) के पर्याय के रूप में किया। इसके बाद ही 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री की दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के संदर्भ में किया गया।
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· प्रश्न - अनुवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालिए ।
अनुवाद के स्वरूप के दो उल्लेखनीय पक्ष हैं - समन्वय और सन्तुलन। अनुवाद सिद्धान्त का बहुविद्यापरक आयाम इसका समन्वयशील पक्ष है। तदनुसार, यद्यपि अनुवाद सिद्धान्त का मूल उद्गम है अनुप्रयुक्त तुलनात्मक पाठसङ्केतविज्ञान, तथापि उसे कुछ अन्य शास्त्र भी स्पर्श करते हैं। 'तुलनात्मक' से अनुवाद का दो भाषाओं से सम्बन्धित होना स्पष्ट ही है, जिसमें भाषाओं की समानता-असमानता के प्रश्न उपस्थित होते हैं। पाठसंकेतविज्ञान के तीनों पक्ष - अर्थविचार, वाक्यविचार तथा सन्दर्भमीमांसा - अनुवाद सिद्धान्त के लिए प्रासंगिक हैं। अर्थविचार में भाषिक संकेत तथा भाषाबाह्य यथार्थ के बीच में सम्बन्ध का अध्ययन होता है। सन्दर्भमीमांसा के अन्तर्गत भाषाप्रयोग की स्थिति के सन्दर्भ के विभिन्न आयामों - वक्ता एवं श्रोता की सामाजिक पहचान, भाषाप्रयोग का उद्देश्य तथा सन्देश के प्रति वक्ता - श्रोता की अभिवृत्ति, भाषाप्रयोग की भौतिक परिस्थितियों की तथा अभिव्यक्ति, माध्यम आदि - की मीमांसा होती है। स्पष्ट है कि संकेतविज्ञान की परिधि भाषाविज्ञान की अपेक्षा व्यापकतर है तथा अनुवाद कार्य जैसे व्यापक सम्प्रेषण व्यापार के अध्ययन के उपयुक्त है।
समन्वय पक्ष
अनुवाद सिद्धान्त को स्पर्श करने वाले शास्त्रों में है सम्प्रेषण सिद्धान्त जिसकी मान्यताओं के अनुसार अनुवाद कार्य एक सम्प्रेषण व्यापार है, तथा तदनुसार उस पर वे सभी बातें लागू होती हैं, जो सम्प्रेषण व्यापार की प्रकृति में हैं, जैसे सम्प्रेषण का शत्प्रतिशत् यथातथ न होना, अपूर्णता, उद्रिक्तता (व्यतिरिक्तता), आंशिक कृत्रिमता आदि। इसी से अनुवाद कार्य में शब्द-प्रति-शब्द तथा अर्थ-प्रति-अर्थ समानता के स्थान पर सन्देशस्तरीय समानता का औचित्य भी साधा जा सकता है। संक्रियात्मक दृष्टि से एक पाठ या प्रोक्ति अनुवाद कार्य का प्रवर्तन बिन्दु होता है। एक पाठ की अपनी संरचना होती है, भाषिक संसक्ति तथा सन्देशगत सुबद्धता की सङ्कल्पनाओं द्वारा उसके सुगठित अथवा शिथिल होने की जाँच कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक पाठ को भाषाप्रकायों की एकीभूत समष्टि के रूप में देखते हुए, उसमें भाषा-प्रयोग शैलीओँ के भाषाप्रकार्यमूलक वितरण के विषय में अधिक निश्चित जानकारी प्राप्त होती हैं। इसी से सम्बन्धित शास्त्र है, समाजभाषाशास्त्र तथा शैलीविज्ञान, जिसमें सामाजिक बोलियों तथा प्रयुक्तियों के अध्ययन के साथ सन्दर्भानुकूल भाषाप्रयोग की शैलीओँ के वितरण की जानकारी अनुवाद सिद्धान्त के लिए वाञ्छनीय है।
भाषा से समन्धित होने के कारण तर्कशास्त्र तथा भाषादर्शन भी अनुवाद सिद्धान्त को पुष्ट करते हैं। तर्कशास्त्र के अनुसार अनूदित पाठ के सत्यमूल्य की परीक्षा अनुवाद की विशुद्धता को शुद्ध करने का आधार है। भाषादर्शन में होने वाले अर्थ सम्बन्धी चिन्तन से अनुवाद कार्य में अर्थ के अन्तरण या उसकी पुनरावृत्ति से सम्बन्धित समस्याओं को जानने में सहायता मिलती है। विटजेन्स्टीन की मान्यता 'भाषा में शब्द का 'प्रयोग' ही उसका अर्थ है'। अनुवाद सिद्धान्त के लिए इस कारण से विशेष प्रासंगिक है कि पाठ ही अनुवाद कार्य की इकाई है, जिसका सफल अर्थबोध अनुवाद की पहली आवश्यकता है। इस प्रकार वक्ता की विवक्षा में अर्थ का मूल खोजना, भाषिक अर्थ तथा भाषाबाह्य स्थिति (सन्दर्भ) अनुवाद सिद्धान्त के आवश्यक अंग हैं। अर्थ के अन्तरण में जहाँ उपर्युक्त मान्यताओं की एक भूमिका है, वहाँ अर्थगत द्विभाषिक समानता के निर्धारण में घटकीय विश्लेषण की पद्धति की विशेष उपयोगिता स्वीकार की गई है। यह बात विशेष रूप से ध्यान में ली जाती है कि जहाँ विविध शास्त्रों की प्रासङ्गिक मान्यताओं से अनुवाद सिद्धान्त का स्वरूप निर्मित है, वहाँ स्वयं अनुवाद सिद्धान्त उन शास्त्रों का एक विशिष्ट अंग है।
सन्तुलन पक्ष
अनुवाद सिद्धान्त का 'सामान्य' पक्ष भी है और विशिष्ट पक्ष भी, और यह इसका सन्तुलनशील स्वरूप है - सामान्य और विशिष्ट का सन्तुलन। अनुवाद की परिभाषा के अनुसार कहा जाता है कि अनुवाद व्यवहारतः विशिष्ट भाषाभेद के स्तर पर तथा इसीलिए सिद्धान्ततः सामान्य भाषा के स्तर पर होता है - अंग्रेजी भाषा के एक भेद पत्रकारिता की अंग्रेजी से हिन्दी भाषा के सममूल्य भेद पत्रकारिता की हिन्दी में। तदनुसार, युगपद् रूप से अनुवाद सिद्धान्त का एक सामान्य पक्ष भी है और विशिष्ट पक्ष भी। हम जो बात सामान्य के स्तर पर कहते हैं, उसे व्यावहारिक रूप में भाषाभेद के विशिष्ट स्तर पर उदाहृत करते हैं।
· प्रश्न - अनुवाद की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए ।
बीसवीं शताब्दी में देशों के बीच की दूरियाँ कम होने के परिणामस्वरूप विभिन्न वैचारिक धरातलों और आर्थिक, औद्योगिक स्तरों पर पारस्परिक भाषिक विनिमय बढ़ा है और इस विनिमय के साथ-साथ अनुवाद का प्रयोग और अधिक किया जाने लगा है। आज के वैज्ञानिक युग में अनुवाद बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है। यदि हमें दूसरे देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना है तो हमें उनके यहाँ विज्ञान के क्षेत्र में, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में हुई प्रगति की जानकारी होनी चाहिए और यह जानकारी हमें अनुवाद के माध्यम से मिलती है।
1. राष्ट्रीय एकता में अनुवाद की आवश्यकता
भारत जैसे विशाल राष्ट्र की एकता के प्रसंग मे अनुवाद की आवश्यकता असंदिग्ध है। भारत की भौगोलिक सीमाएँ न केवल कश्मीर से कन्याकुमारी तक बिखरी हुई हैं बल्कि इस विशाल भूखण्ड में विभिन्न विश्वासों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते हैं जिनकी भाषाएँ एंव बोलियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं। भारत की अनेकता में एकता इन्हीें अर्थों में है कि विभिन्न भाषाओं, विभिन्न जातियों, विभिन्न सम्प्रदायों एवं विभिन्न विश्वासों के देश में भावात्मक एवं राष्ट्रीय एकता कहीं भी बाधित नहीं होती। एक समय में महाराष्ट्र का जो व्यक्ति सोचता है वही हिमाचल का निवासी भी चिन्तन करता है।
भारत के हजारों वर्षों के अद्यतन इतिहास चिन्तन ने इस धारणा को पुष्ट किया है कि मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन से लेकर आज के प्रगतिशील आन्दोलन तक भारतीय साहित्य की दिशा एक रही है। यह बात अनुवाद के द्वारा ही सम्भव हो सकी कि जिस समय गोस्वामी तुलसीदास राम के चरित्र पर महाकाव्य लिख रहे थे, हिन्दी के समानान्तर ओड़िआ में बलराम, बांग्ला में कृत्तिवास, तेलुगु में पोतना, तमिल में कम्बन तथा हरियाणवी में अहमदबख्श अपने-अपने साहित्य में राम के चरित्र को नया रूप दे रहे थे।
स्वतंत्रता आन्दोलन में जिस साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के विरोध की चिंगारी सुलगी थी उसका उत्कर्ष छायावादी दौर की विभिन्न भारतीय भाषाओं की कविता में मिलता है।
2. संस्कृति के विकास में अनुवाद की आवश्यकता
(प्रश्न – बौद्धिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान में अनुवाद कार्य की भुमिका पर प्रकाश डालिए ।)
दुनिया के जिन देशों में विभिन्न जातियों एवं संस्कृतियों का मिलन हुआ है वहाँ सामासिक संस्कृति के निर्माण में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अनुवाद की परम्परा के अध्ययन से पता चलता है कि ईसा के तीन सौ वर्ष पूर्व रोमन लोगों का ग्रीक के लोगों से सम्पर्क हुआ जिसके फलस्वरूप ग्रीक से लैटिन में अनुवाद हुए। इसी प्रकार ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दी में स्पेन के लोग इस्लाम के सम्पर्क में आए और बड़े पैमाने पर योरपीय भाषाओं में अरबी का अनुवाद हुआ। भारत में भी विभिन्न जातियों एवं विश्वासों के लोग आए।
आज की भारतीय संस्कृति जिसे हम सामासिक संस्कृति कहते हैं उसके निर्माण में हजारों वर्षों के विभिन्न धर्मों, मतों एवं विश्वासों की साधना छिपी हुई है।
इन सभी मतों एवं विश्वासों को आत्मसात कर जिस भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है उसके पीछे अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका असंदिग्ध है।
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3. साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की आवश्यकता
साहित्य के अध्ययन में अनुवाद का महत्व आज व्यापक हो गया है। साहित्य यदि जीवन और समाज के यथार्थ को प्रस्तुत करता है तो विभिन्न भाषाओं के साहित्य के सामूहिक अध्ययन से किसी भी समाज, देश या विश्व की चिन्तन-धारा एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है। अनुवाद का महत्व निम्नलिखित साहित्यों के अध्ययन में सहायक है-
भारतीय साहित्य का अध्ययन।
अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य का अध्ययन।
तुलनात्मक साहित्य का अध्ययन।
भारतीय साहित्य के अध्ययन से यह पता चलता है कि विभिन्न साहित्यक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों में हिन्दी एवं हिन्दीतर भाषा के साहित्यकारों का स्वर प्राय: एक जैसा रहा है। मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन, स्वतन्त्रता आन्दोलन तथा नक्सलबाड़ी आन्दोलनों को प्राय: सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में अभिव्यक्ति मिली है।
अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य के अनुवाद से ही यह तथ्य प्रकाश में आया कि दुनिया के विभिन्न भाषाओं में लिखे गए साहित्य में ज्ञान का विपुल भण्डार छिपा हुआ है। भारत में अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य का अनुवाद तो भारत में सूफियों के दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रचलन के साथ ही शुरू हो गया था; किन्तु इसे व्यवस्थित स्वरूप आधुनिक युग में ही प्राप्त हुआ। शेक्सपियर, डी.एच. लॉरेंस, मोपासाँ तथा सार्त्र जैसे चिन्तकों की रचनाओं के अनुवाद से भारतीय जनमानस का साक्षात्कार हुआ एवं कालिदास, रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं प्रेमचन्द की रचनाओं से विश्व प्रभावित हुआ।
दुनिया के विभिन्न भाषाओं के अनुवाद द्वारा ही तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में सहायता मिलती है। तुलनात्मक साहित्य द्वारा इस बात का पता लगाया जाता है कि देश, काल और समय की भिन्नता के बावजूद विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों के साहित्य में साम्य और वैषम्य क्यों है ? अनुवाद के द्वारा ही जो तुलनीय है वह तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनता है। प्रेमचन्द और गोर्की, निराला और इलियट तथा राजकमल चौधरी एवं मोपासाँ के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन अनुवाद के फलस्वरूप ही सम्भव हो सका।
4. व्यवसाय के रूप में अनुवाद की आवश्यकता
वर्तमान युग में अनुवाद ज्ञान की ऐसी शाखा के रूप में विकसित हुआ है जहाँ इज्जत, शोहरत एवं पैसा तीनों हैं। आज अनुवादक दूसरे दर्जे का साहित्यकार नहीं बल्कि उसकी अपनी मौलिक पहचान है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हुए विकास के साथ भारतीय परिदृश्य में कृषि, उद्योग, चिकित्सा, अभियान्त्रिकी और व्यापार के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। इन क्षेत्रों में प्रयुक्त तकनीकी शब्दावली का भारतीयकरण कर इन्हें लोकोन्मुख करने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रोजगार के क्षेत्र में अनुवाद को महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन करता है। संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने के पश्चात् केन्द्र सरकार के कार्यालयों, सार्वजनिक उपक्रमों, संस्थानों और प्रतिष्ठानों में राजभाषा प्रभाग की स्थापना हुई जहाँ अनुवाद कार्य में प्रशिक्षित हिन्दी अनुवादक एवं हिन्दी अधिकारी कार्य करते हैं। आज रोजगार के क्षेत्र में अनुवाद सबसे आगे है। प्रति सप्ताह अनुवाद से सम्बन्धित जितने पद यहाँ विज्ञापित होते हैं अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं।
5. नव्यतम ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में अनुवाद की आवश्यकता
औद्योगीकरण एवं जनसंचार के माध्यमों में हुए अत्याधुनिक विकास ने विश्व की दिशा ही बदल दी है। औद्योगिक उत्पादन, वितरण तथा आर्थिक नियन्त्रण की विभिन्न प्रणालियों पर पूरे विश्व में अनुसंधान हो रहा है। नई खोज और नई तकनीक का विकास कर पूरे विश्व में औद्योगिक क्रान्ति मची हुई है। इस क्षेत्र में होने वाले अद्यतन विकास को विभिन्न भाषा-भाषी राष्ट्रों तक पहुँचाने में भाषा एवं अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
वैज्ञानिक अनुसंधानों को तीव्र गति से पूरे विश्व में पहुँचा देने का श्रेय नव्यतम विकसित जनसंचार के माध्यमों को है। आज विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, कृषि तथा व्यवसाय आदि सभी क्षेत्रों में जो कुछ भी नया होता है वह कुछ ही पलों में टेलीफोन, टेलेक्स तथा फैक्स जैसी तकनीकों के माध्यम से पूरे विश्व में प्रचारित एवं प्रसारित हो जाता है। आज जनसंचार के माध्यमों में होने वाले विकास ने हिन्दी भाषा के प्रयुक्ति-क्षेत्रों को विस्तृत कर दिया है। विज्ञान, व्यवसाय, खेलकूद एवं विज्ञापनों की अपनी अलग शब्दावली हैं।
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संचार माध्यमों में गतिशीलता बढ़ाने का कार्य अनुवाद द्वारा ही सम्भव हो सका है तथा गाँव से लेकर महानगरों तक जो भी अद्यतन सूचनाएँ हैं वे अनुवाद के माध्यम से एक साथ सबों तक पहुँच रही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अनुवाद ने आज पूरे विश्व को एक सूत्र में पिरो दिया है।
अनुवाद के प्रकार : शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, सारानुवाद।
प्रश्न – अनुवाद के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किजिए।
शब्दानुवाद ( टिप्पणी)
अनुवाद के क्षेत्र में शब्दानुवाद को उच्च कोटि की श्रेणी में नहीं कहा जाता किन्तु अनुवादक प्रक्रिया में ऐसे अनेक बिन्दु आते हैं जब शब्दानुवाद के सिवाय कोई पर्याय नहीं रह जाता। शब्दानुवाद वैसे भी भावानुवाद के लिए पूरक तत्त्व के रूप में काफी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। शब्दानुवाद में स्रोत भाषा के शब्दों तथा शब्दांशों को ज्यों-का-त्यों लक्ष्य भाषा में परिवर्तित या रूपांतरित करके अनुवाद कर लिया जाता है अर्थात इसमें मूल पाठ या सामग्री की प्रत्येक शब्दाभिव्यक्ति का अनुवाद प्रायः उसी क्रम में किया जाता है। इसीलिए अनुवाद के इस प्रकार को निकृष्ट कहा जाता है क्योंकि प्रकृति भिन्न होने के साथ ही प्रत्येक भाषा का शब्द क्रम भी भिन्न-भिन्न होता है । अंग्रेजी का एक शब्द है-Pay जिसका शब्दानुवाद भुगतान अथवा वेतन होगा किन्तु बैंकिंग क्षेत्र में उसे 'भुगतान करें' इस पूरे वाक्य के अर्थ में किया जाता है। इस प्रकार, शब्दानुवाद से कभी-कभी उलझनें भी पैदा प्रयुक्त हो सकती हैं। शब्दानुवाद में मूल बातों के यथातथ्य होने के कारण अनुवाद की भाषा प्रायः कृत्रिम एवं निष्प्राण हो जाती है तथा उसमें मूल पाठ या रचना का स्वाभाविक प्रवाह नहीं रह जाता या नहीं आ पाता। फलतः अनुवाद दुर्बोध्य, बोझिल और कभी-कभार हास्यास्पद भी हो जाता है। शब्दानुवाद के रोचक उदाहरण इस प्रकार दिए जा सकते हैं-
1. My head is eating circles.
मेरा सिर चक्कर खा रहा है।
2. He became water and water.
वह पानी-पानी हो गया।
3. Warm welcome.
गरमागरम स्वागत।
4. It was raining cats & dogs.
बिल्ली-कुत्तों की बरसात हो रही थी।
भावानुवाद ( टिप्पणी)
अनुवादक क्षेत्र में अन्य सभी अनुवादों की अपेक्षा भावानुवाद को उत्तम कोटि का अनुवाद माना जाता है। भावानुवाद में शब्दानुवाद की तरह केवल शब्द, वाक्यांश तथा वाक्य-प्रयोग आदि पर ध्यान न देकर स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा के मूल अर्थ, विचार और भावाभिव्यक्ति पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। भावानुवाद में मूल पाठ की आत्मा अर्थात मूल कथ्य की सामग्री को ही मुख्य रूप मानकर उसे लक्ष्य भाषा में यथायोग्य पद्धति से सम्प्रेषित किया जाता है। अनुवाद के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ पैदा होती हैं जब अनुवादक किसी भी पाठ या वाक्यांश का ठीक-ठीक शब्दानुवाद करने में असमर्थ होता है। तब ऐसी स्थिति में उस सामग्री के अनुवाद के लिए भावानुवाद का ही सहारा लेना पड़ता है। डॉ. भोलानाथ तिवारी की मान्यता है-"सामान्यतः मूल सामग्री यदि सूक्ष्म भावों वाली है तो उसका भावानुवाद करते हैं। और यदि वह तथ्यात्मक वैज्ञानिक या विचार प्रधान है तो उसका शब्दानुवाद करते है।" भावानुवाद को अनुवाद प्रक्रिया की महत्त्वपूर्ण पद्धति माना जाता है, क्योंकि भावानुवाद मूल भाषा पाठ के प्रमुख विचार भाव, अर्थ तथा संकल्पना को लक्ष्य भाषा में उनकी समस्त विशेषताओं के साथ सम्प्रेषित किया जाता है। भावानुवाद में अनुवादक का ध्यान कथ्य के भाव, विचार तथा अर्थ पर विशेष रूप से बना रहता है। वस्तुतः इसमें अनुवादक मूल भाषा (स्रोत भाषा) पाठ की सामग्री के अर्थ को सम्पूर्णतः एवं समुचित ढंग से लक्ष्य भाषा पाठ में लाने की चेष्टा करता है, फलतः इसमें स्रोत भाषा की मूल भाव-भंगिमा तथा रचनाधर्मिता प्रायः सुरक्षित बनी रहती है। अतः इस दृष्टि से भावानुवाद सर्वाधिक उपयोगी माना जा सकता है।
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छायानुवाद ( टिप्पणी)
छायानुवाद के सन्दर्भ में 'छाया' शब्द से तात्पर्य है धूसर तथा धुँधला प्रभाव।
छायानुवाद में मूल पाठ की अर्थच्छाया को ग्रहण कर अनुवाद किया जाता है। अर्थात इसमें स्रोत भाषा की मुख्य बातें, दृष्टिकोण तथा विचार या संकल्पना आदि को ग्रहण करके इन सबके संकलित प्रभाव को लक्ष्य भाषा में रूपांतरित किया जाता है। छायानुवाद शब्दानुवाद की तरह स्रोत भाषा अथवा मूल पाठ के शब्दों का अनुसरण न करके, या भावानुवाद की तरह मूल विचारों के भावार्थ का यथातथ्य अनुगमन न करके, इन दोनों से मुक्त होकर इनकी छाया मात्र लेकर स्वतन्त्र रूप से अनुवाद किया जाता है।
सारानुवाद ( टिप्पणी)
लम्बी रचनाओं, लम्बे भाषणों, बृहद प्रतिवेदनों तथा राजनीतिक वार्ताओं आदि को उसके कथ्य तथा मूल तत्त्व को पूर्णतः सुरक्षित रखते हुए प्रसंग अथवा सन्दर्भ की आवश्यकतानुसार संक्षेप में रूपांतरित करने की प्रक्रिया को सारानुवाद कहते हैं। ऐसे अनुवाद में स्रोत भाषा की सामग्री का सारांश मूल कथ्य को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य भाषा में अंतरित कर दिया जाता है। अनुवाद की इस पद्धति का सहारा मुख्यतः दुभाषिये, समाचार पत्रों के संवाददाता तथा संसद अथवा विधान मण्डलों की कार्यवाही के रिकार्ड कर्ता आदि लेते हैं।
· प्रश्न - नाइडा के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया के कितने चरण हैं और कौन-कौन ?
नाइडा के अनुसार अनुवाद प्रक्रिया के वास्तव में तीन सोपान ( चरण) होते हैं- ( विश्लेषण , अंतरण, पुनर्गठन )
(१) अनुवादक सर्वप्रथम मूलभाषा के पाठ का विश्लेषण करता है; पाठ की व्याकरणिक संरचना तथा शब्दों एवं शब्द श्रृङ्खलाओं का अर्थगत विश्लेषण कर वह मूलपाठ के सन्देश को ग्रहण करता है । इसके लिए वह भाषा-सिद्धान्त पर आधारित भाषा-विश्लेषण की तकनीकों का उपयुक्त रीति से अनुप्रयोग करता है । विशेषतः असामान्य रूप से जटिल तथा दीर्घ और अनेकार्थ वाक्यों और वाक्यांशों/पदबन्धों के अर्थबोधन में हो सकने वाली कठिनाइयों का हल करने में मूलपाठ का विश्लेषण सहायक रहता है।
(२) अर्थबोध हो जाने के पश्चात् सन्देश का लक्ष्यभाषा में संक्रमण होता है । यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में होती है । इसमें मूलपाठ के लक्ष्यभाषागत अनुवाद-पर्याय निर्धारित होते हैं तथा दोनों भाषाओं के मध्य विभिन्न स्तरों और श्रेणियों में सामञ्जस्य स्थापित होता है ।
(3) अन्त में अनुवादक मूलभाषा के सन्देश को लक्ष्य भाषा में उसकी संरचना एवं प्रयोग नियमों तथा विधागत रूढ़ियों के अनुसार इस प्रकार पुनर्गठित करता है कि वह लक्ष्यभाषा के पाठक को स्वाभाविक प्रतीत होता है या कम से कम अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता ।
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विश्लेषण
अनुवाद प्रक्रिया के स्पष्टीकरण के सन्दर्भ में नाइडा ने मूलपाठ के विश्लेषण के लिए एक सुनिश्चित भाषा सिद्धान्त तथा विश्लेषण की रूपरेखा प्रस्तुत की है। उनके अनुसार भाषा के दो पक्षों का विश्लेषण अपेक्षित है - व्याकरण तथा शब्दार्थ । नाइडा व्याकरण को केवल वाक्य अथवा निम्नतर श्रेणियों - उपवाक्य, पदबन्ध आदि - के गठनात्मक विश्लेषण पर्यन्त सीमित नहीं मानते । उनके अनुसार व्याकरणिक गठन भी एक प्रकार से अर्थवान् होता है । उदाहरण के लिए, कर्तृवाच्य संरचना और कर्मवाच्य/भाववाच्य संरचना में केवल गठनात्मक अन्तर ही नहीं, अपितु अर्थ का अन्तर भी है । इस सम्बन्ध में उन्होंने अनेकार्थ संरचनाओं की ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा है। उदाहरण के लिए, 'यह राम का चित्र है' इस वाक्य के निम्नलिखित तीन अर्थ हो सकते हैं :
(१) यह चित्र राम ने बनाया है।
(२) इस चित्र में राम अंकित है।
(३) यह चित्र राम की सम्पत्ति है।
ये तीनों वाक्य, नाइडा के अनुसार, बीजवाक्य या उपबीजवाक्य हैं, जिनका निर्धारण अनुवर्ति रूपान्तरण की विधि से किया गया है । बाह्यस्तरीय संरचना पर इन तीनों वाक्यों का प्रत्यक्षीकरण 'यह राम का चित्र है' इस एक ही वाक्य के रूप में होता है । नाइडा ने उपर्युक्त रूपान्तरण विधि का विस्तार से वर्णन किया है । उनकी रूपान्तरण विषयक धारणा चाम्स्की के रूपान्तरण-प्रजनक व्याकरण की धारणा के समान कठोर तथा गठनबद्ध नहीं, अपि तु अनुप्रयोग की प्रकृति तथा उसके उद्देश्य के अनुरूप लचीली तथा अन्तर्ज्ञानमलक है । इसी प्रकार उन्होंने शब्दार्थ की दो कोटियों - वाच्यार्थ और लक्ष्य-व्यंग्यार्थ- का वर्णनात्मक विश्लेषण किया है । यह ध्यान देने योग्य है कि, नाइडा ने विश्लेषण की उपर्युक्त प्रणाली को मूलभाषा पाठ के अर्थबोधन के साधन के रूप में प्रस्तुत किया है । उनका बल मूलपाठ के अर्थ का यथासम्भव पूर्ण और शुद्ध रीति से समझने पर रहा है । उनकी प्रणाली बाइबिल एवं उसके सदृश अन्य प्राचीन ग्रन्थों की भाषा के विश्लेषणात्मक अर्थबोधन के लिए उपयुक्त माना जाता है; यद्यपि उसका प्रयोग अन्य और आधुनिक भाषाभेदों के पाठों के अर्थबोधन के लिए भी किया जा सकता है ।
अंतरण
विश्लेषण की सहायता से हुए अर्थबोध का लक्ष्यभाषा में संक्रान्त अनुवाद-प्रक्रिया का केन्द्रस्थ सोपान है। अनुवादकार्य में अनुवादक को विश्लेषण और पुनर्गठन के दो ध्रुवों के मध्य गति करते रहना होता है, परन्तु यह गति संक्रमण मध्यवर्ती सोपान के मार्ग से होती है, जहाँ अनुवादक को (क्षण भर के लिए रुकते हुए) पुनर्गठन के सोपान के अंशो को और अधिक स्पष्टता से दर्शन होता है । संक्रमण की यह प्रक्रिया अनुवादक के मस्तिष्क में तथा अपनी प्रकृति से त्वरित तथा अन्तर्ज्ञानमूलक होती है । अनुवाद प्रक्रिया में अनुवादक के व्यक्तित्व की संगति इस सोपान पर है । विश्लेषण से प्राप्त भाषिक तथा सम्प्रेषण सम्बन्धी तथ्यों का, उपयुक्त अनुवाद-पर्याय स्थिर करने में, अनुवादक जैसा उपयोग करता है, उसी में उसकी कुशलता निहित होती है । विश्लेषण तथा पुनर्गठन के सोपानों पर एक अनुवादक अन्य व्यक्तियों से भी कभी कुछ सहायता ले सकता है, परन्तु संक्रमण के सोपान पर वह एकाकी ही होता है । संक्रमण के सोपान पर विचारणीय बातें दो हैं - अनुवादक का अपना व्यक्तित्व तथा मूलभाषा एवं लक्ष्यभाषा के बीच संक्रमणकालीन सामञ्जस्य । अनुवादक के व्यक्तित्व में उसका विषयज्ञान, भाषाज्ञान, प्रतिभा, तथा कल्पना इन चार की विशेष अपेक्षा होती है । तथापि प्रधानता की दृष्ट से प्रतिभा और कल्पना को विषयज्ञान तथा भाषाज्ञान से अधिक महत्त्व देना होता है, क्योंकि अनुवाद प्रधानतया एक व्यावहारिक और क्रियात्मक कार्य है । विषयज्ञान तथा भाषाज्ञान की कमी को अनुवादक दूसरों की सहायता से भी पूरा कर सकता है, परन्तु प्रतिभा और कल्पना की दृष्टि से अपने ऊपर ही निर्भर रहना होता है ।
मूलभाषा एवं लक्ष्यभाषा के मध्य सामञ्जस्य स्थापित होना अनुवाद-प्रक्रिया की अनिवार्य एवं आन्तरिक आवश्यकता है । भाषान्तरण में सन्देश का प्रतिकूल रूप से प्रभावित होना सम्भावित रहता है । इस प्रतिकूलता के प्रभाव को यथासम्भव कम करने के लिए अर्थपक्ष और व्याकरण दोनों की दृष्टि से दोनों भाषाओं के बीच सामंजस्य की स्थिति लानी होती है । मुहावरे एवं उनका लाक्षणिक प्रयोग, अनेकार्थकता, अर्थ की सामान्यता तथा विशिष्टता, आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिनका सामंजस्य करना होता है । व्याकरण की दृष्टि से प्रोक्ति-संरचना एवं प्रकार, वाक्य-संरचना एवं प्रकार तथा पद-संरचना एवं प्रकार सम्बन्धी अनेक ऐसी बातें हैं, जिनका समायोजन अपेक्षित होता है । उदाहरण के लिए, मूलपाठ में प्रयुक्त किसी विशेष अन्तरवाक्ययोजक के लिए लक्ष्यभाषा के पाठ में किसी अन्तरवाक्ययोजक का प्रयोग अपेक्षित न होना, मूलपाठ की कर्मवाच्य संरचना के लिए लक्ष्यभाषा में कर्तृवाच्य संरचना का उपयुक्त होना व्याकरणिक समायोजन के मुद्दे हैं ।
संक्रमण का सोपान अनुवाद कार्य की दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है, अनुवाद प्रक्रिया के स्पष्टीकरण में उसका अपेक्षाकृत स्वतन्त्र अस्तित्व शेष दो सोपानों की तुलना में उतना स्पष्ट नहीं । बहुधा संक्रमण तथा पुनर्गठन के सोपानों के अन्तर को प्रक्रिया के विशदीकरण में स्थापित करना कठिन हो जाता है । विश्लेषण और पुनर्गठन के सोपानों पर, अनुवादक का कर्तृत्व यदि अपेक्षाकृत स्वतन्त्र होता है, तो संक्रमण के सोपान पर वह कुछ अधीनता की स्थिति में रहता है । अधिक मुख्य बात यह है कि, अनुवादक को उन सब मुद्दों की चेतना हो जिनका ऊपर वर्णन किया गया है । यदि अनुवाद-प्रशिक्षणार्थी के लिए ये प्रत्यक्ष रूप से उपयोगी माने जाएँ, तो अभ्यस्त अनुवादक के अनुवाद-व्यवहार के ये स्वाभाविक अङ्ग माने जा सकते हैं।
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पुनर्गठन
मूलपाठ के सन्देश का अर्थबोध, संक्रमण के सोपान में से होते हुए लक्ष्यभाषा में पुनर्गठित होकर अनुवाद (अनुदित पाठ) का रूप धारण करता है । पुनर्गठन का सोपान लक्ष्यभाषा में मूर्त अभिव्यक्ति का सोपान है । अनुवाद प्रक्रिया की जानकारी के सम्बन्ध में अनुवादकों को पुनर्गठन के सोपान पर पाठ के जिन प्रमुख आयामों की उपयुक्तता पर ध्यान देना अभीष्ट है वे हैं -
१) व्याकरणिक संरचना तथा प्रकार,
२) शब्दक्रम,
३) सहप्रयोग,
४) भाषाभेद तथा शैलीगत प्रतिमान ।
लक्ष्यभाषागत उपयुक्तता तथा स्वाभाविकता ही इन सबकी आधारभूत कसौटी है। इन गुणों की निष्पत्ति के लिए कई बार दोनों भाषाओं में समानता की स्थिति सहायक होती है, कई बार असमानता की । उदाहरण के लिए, यह आवश्यक नहीं कि, मूलभाषा के पदबन्ध के लिए लक्ष्यभाषा का उपयुक्त अनुवाद-पर्याय एक पदबन्ध ही हो; यह संरचना एक समस्त पद भी हो सकती है; जैसे, Diploma in translation = अनुवाद डिप्लोमा । देखना यह होता है कि, लक्ष्यभाषा में सन्देश का पुनर्गठन उपर्युक्त घटकों की दृष्टि से उपयुक्तता तथा स्वाभाविकता की स्थिति की निष्पत्ति करें; वे घटक लक्ष्यभाषा की 'आत्मीयता' (जीनियस) तथा परम्परा के अनुरूप हों ।
मूलभाषा में व्याकरणिक संरचना के कतिपय तथ्यों का लक्ष्यभाषा में स्वरूप बदल सकता है, यद्यपि यह सदा आवश्यक नहीं होता । उदाहरण के लिए, आङ्ग्ल मूलपाठ की कर्मवाच्य संरचना "Steps have been taken by the Government to meet the situation" को हिन्दी में कर्मवाच्य संरचना में भी प्रस्तुत किया जा सकता है, कर्तृवाच्य संरचना में भी : " स्थिति का सामना करने के लिए सरकार द्वारा कार्यवाही की गई हैं/स्थिति का सामना करने के लिए सरकार ने कार्यवाही की हैं ।" परन्तु "The meeting was chaired by X" के लिए हिन्दी में कर्तृवाच्य संरचना "क्ष ने बैठक की अध्यक्षता की" उपयुक्त प्रतीत होता है। ऐसे निर्णय पुनर्गठन के स्तर पर किए जाते हैं । यही बात सहप्रयोग के लिए है । सहप्रयोग प्रत्येक भाषा के अपने-अपने होते हैं । अंग्रेजी में to take a step कहते हैं, तो हिन्दी में 'कार्यवाही करना' । इस उदाहरण में to take का अनुवाद 'उठाना' समझना भूल मानी जाएगी : ये दोनों अपनी-अपनी भाषा में ऐसे शाब्दिक इकाइयों के रूप में प्रयुक्त होते हैं, जिन्हें खण्डित नहीं किया जा सकता ।
भाषाभेद के अन्तर्गत, कालगत, स्थानगत और प्रयोजनमूलक भाषाभेदों की गणना होती है । तथापि एक सुगठित पाठ के स्तर पर ये सब शैलीभेद के रूप में देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए, पुरानी अंग्रेजी की रचना का हिन्दी में अनुवाद करते समय, पुनर्गठन के सोपान पर अनुवादक को यह निर्णय करना होगा कि, लक्ष्यभाषा के किस भाषाभेद के शैलीगत प्रभाव मूलभाषापाठ के शैलीगत प्रभावों के समकक्ष हो सकते हैं । इस दृष्टि से पुरानी अंग्रेजी के पाठ का पुरानी हिन्दी में भी अनुवाद उपयुक्त हो सकता है, आधुनिक हिन्दी में भी । शैलीगत प्रतिमान को विहङ्ग दृष्टि से दो रूपों में समझाया जाता है : साहित्येतर शैली और साहित्यिक शैली ।
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साहित्येतर शैली में औपचारिक के विरुद्ध अनौपचारिक तथा तकनीकी के विरुद्ध गैर-तकनीकी, ये दो भेद प्रमुख रूप से मिलते हैं । साहित्यिक शैली में पाठ के विधागत भेदों - गद्य और पद्य, आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है । इस दृष्टि से औपचारिक शैली के मूलपाठ को लक्ष्यभाषा में औपचारिक शैली में ही प्रस्तुत किया जाए, या मूल गद्य रचना को लक्ष्यभाषा में गद्य के रूप में ही प्रस्तुत किया जाए, यह निर्णय लक्ष्यभाषा की परम्परा पर आधारित उपयुक्तता के अनुसार करना होता है । उदाहरण के लिए, भारतीय भाषाओं में गद्य की तुलना में पद्य की परम्परा अधिक पुष्ट है; अतः उनमें मूल गद्य पाठ का यदि पद्यात्मक भाषान्तरण हो, तो वह भी उपयुक्त प्रतीत हो सकता है । सारांश यह कि लक्ष्यभाषा में जो स्वाभिक और उपयुक्त प्रतीत हो तथा जो लक्ष्यभाषा की परम्परा के अनुकूल हो – स्वाभाविकता, उपयुक्तता तथा परम्परानुवर्तिता, ये तीनों एक सीमा तक अन्योन्याश्रित हैं - उसके आधार पर लक्ष्यभाषा में सन्देश का पुनर्गठन होता है ।
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