रविवार, 22 मई 2022

आहुति - मुंशी प्रेम चंद

 

आहुति-

        मुंशी प्रेम चंद


1


         आनन्द ने गद्देदार कुर्सी पर बैठकर सिगार जलाते हुए कहा-आज विशम्भर ने कैसी हिमाकत की! इम्तहान करीब है और आप आज वालण्टियर बन बैठे। कहीं पकड़ गये, तो इम्तहान से हाथ धोएँगे। मेरा तो खयाल है कि वजीफ़ा भी बन्द हो जाएगा।
         सामने दूसरे बेंच पर रूपमणि बैठी एक अखबार पढ़ रही थी। उसकी आँखें अखबार की तरफ थीं; पर कान आनन्द की तरफ लगे हुए थे। बोली-यह तो बुरा हुआ। तुमने समझाया नहीं? आनन्द ने मुँह बनाकर कहा-जब कोई अपने को दूसरा गाँधी समझने लगे, तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है। वह उलटे मुझे समझाने लगता है।
          रूपमणि ने अखबार को समेटकर बालों को सँभालते हुए कहा-तुमने मुझे भी नहीं बताया, शायद मैं उसे रोक सकती।
          आनन्द ने कुछ चिढक़र कहा-तो अभी क्या हुआ, अभी तो शायद काँग्रेस आफिस ही में हो। जाकर रोक लो।
           आनन्द और विशम्भर दोनों ही यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी; विशम्भर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटा-सा वजीफा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं के समकक्ष थी; पर इस साल उसने कालेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभी-कभी उससे मिलने आते रहते थे। आनन्द आता था। उसका हृदय लेने के लिए, विशम्भर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी विपत्ति-कथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था; ज़लील करता था और बेवकूफ बनाता था। विशम्भर में उससे बहस करने की सामथ्र्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या? आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था। और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशम्भर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को ढाला; पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय विद्रोह करता रहा। बेशक उसका यह साल खराब हो जाएगा। सम्भव है, छात्र-जीवन ही का अन्त हो जाए, फिर इस १४-१५ वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा न खुदा ही मिलेगा, न सनम का विसाल ही नसीब होगा। आग में कूदने से क्या फायदा। यूनिवर्सिटी में रहकर भी तो बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है। आनन्द महीने में कुछ-न-कुछ चन्दा जमा करा देता है, दूसरे छात्रों से स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है। विशम्भर को भी आनन्द ने यही सलाह दी। इस तर्क ने उसकी बुद्धि को तो जीत लिया, पर उसके मन को न जीत सका। आज जब आनन्द कालेज गया तो विशम्भर ने स्वराज्य-भवन की राह ली। आनन्द कालेज से लौटा तो उसे अपनी मेज पर विशम्भर का पत्र मिला। लिखा था-
प्रिय आनन्द,
          मैं जानता हूँ कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूँ वह मेरे लिए हितकर नहीं है; पर न जाने कौन-सी शक्ति मुझे खींचे लिये जा रही है। मैं जाना नहीं चाहता, पर जाता हूँ, उसी तरह जैसे आदमी मरना नहीं चाहता, पर मरता है; रोना नहीं चाहता, पर रोता है। जब सभी लोग, जिन पर हमारी भक्ति है, ओखली में अपना सिर डाल चुके थे, तो मेरे लिए भी अब कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मैं अब और अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकता। यह इज्जत का सवाल है, और इज्जत किसी तरह का समझौता (compromise) नहीं कर सकती।
                          तुम्हारा- 'विशम्भर'
         ख़त पढक़र आनन्द के जी में आया, कि विशम्भर को समझाकर लौटा लाये; पर उसकी हिमाक़त पर गुस्सा आया और उसी तैश में वह रूपमणि के पास जा पहुँचा। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती-जाकर उसे लौटा लाओ, तो शायद वह चला जाता, पर उसका यह कहना कि मैं उसे रोक लेती, उसके लिए असह्य था। उसके जवाब में रोष था, रुखाई थी और शायद कुछ हसद भी था।


      रूपमणि ने गर्व से उसकी ओर देखा और बोली-अच्छी बात है, मैं जाती हूँ।


        एक क्षण के बाद उसने डरते-डरते पूछा-तुम क्यों नहीं चलते?


        फिर वही गलती। अगर रूपमणि उसकी खुशामद करके कहती तो आनन्द जरूर उसके साथ चला जाता, पर उसके प्रश्न में पहले ही यह भाव छिपा था, कि आनन्द जाना नहीं चाहता। अभिमानी आनन्द इस तरह नहीं जा सकता। उसने उदासीन भाव से कहा-मेरा जाना व्यर्थ है। तुम्हारी बातों का ज्यादा असर होगा। मेरी मेज पर यह ख़त छोड़ गया था। जब वह आत्मा और कर्तव्य और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें सोच रहा है और अपने को भी कोई ऊँचे दरजे का आदमी समझ रहा है, तो मेरा उस पर कोई असर न होगा।


      उसने जेब से पत्र निकालकर रूपमणि के सामने रख दिया। इन शब्दों में जो संकेत और व्यंग्य था, उसने एक क्षण तक रूपमणि को उसकी तरफ देखने न दिया। आनन्द के इस निर्दय प्रहार ने उसे आहत-सा कर दिया था; पर एक ही क्षण में विद्रोह की एक चिनगारी-सी उसके अन्दर जा घुसी। उसने स्वच्छन्द भाव से पत्र को लेकर पढ़ा। पढ़ा सिर्फ आनन्द के प्रहार का जवाब देने के लिए; पर पढ़ते-पढ़ते उसका चेहरा तेज से कठोर हो गया, गरदन तन गयी, आँखों में उत्सर्ग की लाली आ गयी।


      उसने मेज पर पत्र रखकर कहा-नहीं, अब मेरा जाना भी व्यर्थ है।


     आनन्द ने अपनी विजय पर फूलकर कहा-मैंने तो तुमसे पहले ही कह दिया, इस वक्त उसके सिर पर भूत सवार है, उस पर किसी के समझाने का असर न होगा। जब साल भर जेल में चक्की पीस लेंगे और वहाँ तपेदिक लेकर निकलेंगे, या पुलिस के डण्डों से सिर और हाथ-पाँव तुड़वा लेंगे, तो बुद्धि ठिकाने आवेगी। अभी तो जयजयकार और तालियों के स्वप्न देख रहे होंगे।
     रूपमणि सामने आकाश की ओर देख रही थी। नीले आकाश में एक छायाचित्र-सा नजर आ रहा था-दुर्बल, सूखा हुआ नग्न शरीर, घुटनों तक धोती, चिकना सिर, पोपला मुँह, तप, त्याग और सत्य की सजीव मूर्ति।


      आनन्द ने फिर कहा-अगर मुझे मालूम हो, कि मेरे रक्त से देश का उद्धार हो जाएगा, तो मैं आज उसे देने को तैयार हूँ; लेकिन मेरे जैसे सौ-पचास आदमी निकल ही आएँ, तो क्या होगा? प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीखता।


     रूपमणि अब भी वही छायाचित्र देख रही थी। वही छाया मुस्करा रही थी, सरल मनोहर मुस्कान, जिसने विश्व को जीत लिया है।


      आनन्द फिर बोला-जिन महाशयों को परीक्षा का भूत सताया करता है, उन्हें देश का उद्धार करने की सूझती है। पूछिए, आप अपना उद्धार तो कर ही नहीं सकते, देश का क्या उद्धार कीजिएगा? इधर फेल होने से उधर के डण्डे फिर भी हलके हैं।


        रूपमणि की आँखें आकाश की ओर थीं। छायाचित्र कठोर हो गया था।
आनन्द ने जैसे चौंककर कहा-हाँ, आज बड़ी मजेदार फिल्म है। चलती हो? पहले शो में लौट आएँ।


       रूपमणि ने जैसे आकाश से नीचे उतरकर कहा-नहीं, मेरा जी नहीं चाहता।
आनन्द ने धीरे से उसका हाथ पकडक़र कहा-तबीयत तो अच्छी है? रूपमणि ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। बोली-हाँ, तबीयत में हुआ क्या है?


'तो चलती क्यों नहीं?'


'आज जी नहीं चाहता।'


'तो फिर मैं भी न जाऊँगा।'


'बहुत ही उत्तम, टिकट के रुपये काँग्रेस को दे दो।'


'यह तो टेढ़ी शर्त है; लेकिन मंजूर!'


'कल रसीद मुझे दिखा देना।'


'तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास नहीं?'


आनन्द होस्टल चला। जरा देर बाद रूपमणि स्वराज्य-भवन की ओर चली।

2


     रूपमणि स्वराज्य-भवन पहुँची, तो स्वयंसेवकों का एक दल विलायती कपड़े के गोदामों को पिकेट करने जा रहा था। विशम्भर दल में न था।


     दूसरा दल शराब की दूकानों पर जाने को तैयार खड़ा था। विशम्भर इसमें भी न था।


     रूपमणि ने मन्त्री के पास आकर कहा-आप बता सकते हैं, विशम्भर नाथ कहाँ हैं?


मन्त्री ने पूछा-वही, जो आज भरती हुए हैं?


'जी हाँ, वही।'


    'बड़ा दिलेर आदमी है। देहातों को तैयार करने का काम लिया है। स्टेशन पहुँच गया होगा। सात बजे की गाड़ी से जा रहा है।'


   'तो अभी स्टेशन पर होंगे।'


    मन्त्री ने घड़ी पर नजर डालकर जवाब दिया-हाँ, अभी तो शायद स्टेशन पर मिल जाएँ।


     रूपमणि ने बाहर निकलकर साइकिल तेज की। स्टेशन पर पहुँची, तो देखा, विशम्भर प्लेटफार्म पर खड़ा है।


     रूपमणि को देखते ही लपककर उसके पास आया और बोला-तुम यहाँ कैसे आयी। आज आनन्द से तुम्हारी मुलाकात हुई थी?


     रूपमणि ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा-यह तुमने क्या सूरत बना रखी है? क्या पाँव में जूता पहनना भी देशद्रोह है?


       विशम्भर ने डरते-डरते पूछा-आनन्द बाबू ने तुमसे कुछ कहा नहीं?


       रूपमणि ने स्वर को कठोर बनाकर कहा-जी हाँ, कहा। तुम्हें यह क्या सूझी? दो साल से कम के लिए न जाओगे!


        विशम्भर का मुँह गिर गया। बोला-जब यह जानती हो, तो क्या तुम्हारे पास मेरी हिम्मत बाँधने के लिए दो शब्द नहीं हैं?


        रूपमणि का हृदय मसोस उठा; मगर बाहरी उपेक्षा को न त्याग सकी।

     बोली-तुम मुझे दुश्मन समझते हो, या दोस्त।


     विशम्भर ने आँखों में आँसू भरकर कहा-तुम ऐसा प्रश्न क्यों करती हो रूपमणि? इसका जवाब मेरे मुँह से न सुनकर भी क्या तुम नहीं समझ सकतीं?
रूपमणि-तो मैं कहती हूँ, तुम मत जाओ।


     विशम्भर-यह दोस्त की सलाह नहीं है रूपमणि! मुझे विश्वास है, तुम हृदय से यह नहीं कह रही हो। मेरे प्राणों का क्या मूल्य है, जरा यह सोचो। एम०ए० होकर भी सौ रुपये की नौकरी। बहुत बढ़ा तो तीन-चार सौ तक जाऊँगा। इसके बदले यहाँ क्या मिलेगा, जानती हो? सम्पूर्ण देश का स्वराज्य। इतने महान् हेतु के लिए मर जाना भी उस जिन्दगी से कहीं बढक़र है। अब जाओ, गाड़ी आ रही है। आनन्द बाबू से कहना, मुझसे नाराज न हों।


      रूपमणि ने आज तक इस मन्दबुद्धि युवक पर दया की थी। इस समय उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया। त्याग में हृदय को खींचने की जो शक्ति है, उसने रूपमणि को इतने वेग से खींचा कि परिस्थितियों का अन्तर मिट-सा गया। विशम्भर में जितने दोष थे, वे सभी अलंकार बन-बनकर चमक उठे। उसके हृदय की विशालता में वह किसी पक्षी की भाँति उड़-उडक़र आश्रय खोजने लगी।
रूपमणि ने उसकी ओर आतुर नेत्रों से देखकर कहा-मुझे भी अपने साथ लेते चलो।


      विशम्भर पर जैसे घड़ों का नशा चढ़ गया।


     'तुमको? आनन्द बाबू मुझे जिन्दा न छोड़ेंगे!'


      'मैं आनन्द के हाथों बिकी नहीं हूँ!'


      'आनन्द तो तुम्हारे हाथों बिके हुए हैं?'


        रूपमणि ने विद्रोह भरी आँखों से उसकी ओर देखा, पर कुछ बोली नहीं। परिस्थितियाँ उसे इस समय बाधाओं-सी मालूम हो रही थीं। वह भी विशम्भर की भाँति स्वछन्द क्यों न हुई? सम्पन्न माँ-बाप की अकेली लडक़ी, भोग-विलास में पली हुई, इस समय अपने को कैदी समझ रही थी। उसकी आत्मा उन बन्धनों को तोड़ डालने के लिए जोर लगाने लगी।


        गाड़ी आ गयी। मुसाफिर चढऩे-उतरने लगे। रूपमणि ने सजल नेत्रों से कहा-तुम मुझे नहीं ले चलोगे?


        विशम्भर ने दृढ़ता से कहा-नहीं।


       'क्यों?'


       'मैं इसका जवाब नहीं देना चाहता!'


       'क्या तुम समझते हो, मैं इतनी विलासासक्त हूँ कि मैं देहात में रह नहीं सकती?'


       विशम्भर लज्जित हो गया। यह भी एक बड़ा कारण था, पर उसने इनकार किया-नहीं, यह बात नहीं।


      'फिर क्या बात है? क्या यह भय है, पिताजी मुझे त्याग देंगे?'


      'अगर यह भय हो तो क्या वह विचार करने योग्य नहीं?'


      'मैं उनकी तृण बराबर परवा नहीं करती।'


          विशम्भर ने देखा, रूपमणि के चाँद-से मुख पर गर्वमय संकल्प का आभास था। वह उस संकल्प के सामने जैसे काँप उठा। बोला-मेरी यह याचना स्वीकर करो, रूपमणि, मैं तुमसे विनती करता हूँ।


        रूपमणि सोचती रही।


       विशम्भर ने फिर कहा-मेरी खातिर तुम्हें यह विचार छोडऩा पड़ेगा।


       रूपमणि ने सिर झुकाकर कहा-अगर तुम्हारा यह आदेश है, तो मैं मानूँगी विशम्भर! तुम दिल से समझते हो, मैं क्षणिक आवेश में आकर इस समय अपने भविष्य को गारत करने जा रही हूँ। मैं तुम्हें दिखा दूँगी, यह मेरा क्षणिक आवेश नहीं है, दृढ़ संकल्प है। जाओ; मगर मेरी इतनी बात मानना कि कानून के पंजे में उसी वक्त आना, जब आत्माभिमान या सिद्धान्त पर चोट लगती हो। मैं ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती रहूँगी।


       गाड़ी ने सीटी दी। विशम्भर अन्दर जा बैठा। गाड़ी चली, रूपमणि मानो विश्व की सम्पत्ति अंचल में लिये खड़ी रही।

3


        रूपमणि के पास विशम्भर का एक पुराना रद्दी-सा फोटो आल्मारी के एक कोने में पड़ा हुआ था। आज स्टेशन से आकर उसने उसे निकाला और उसे एक मखमली फ्रेम में लगाकर मेज पर रख दिया। आनन्द का फोटो वहाँ से हटा दिया गया।


         विशम्भर ने छुट्टियों में उसे दो-चार पत्र लिखे थे। रूपमणि ने उन्हें पढक़र एक किनारे डाल दिये थे। आज उसने उन पत्रों को निकाला और उन्हें दोबारा पढ़ा। उन पत्रों में आज कितना रस था। वह बड़ी हिफाजत से राइटिंग-बाक्स में बन्दकर दिये गये।


       दूसरे दिन समाचारपत्र आया तो रूपमणि उस पर टूट पड़ी। विशम्भर का नाम देखकर वह गर्व से फूल उठी।


       दिन में एक बार स्वराज्य-भवन जाना उनका नियम हो गया। ज़लसों में भी बराबर शरीक होती, विलास की चीजें एक-एक करके सब फेंक दी गयीं। रेशमी साडिय़ों की जगह गाढ़े की साडिय़ाँ आयीं। चरखा भी आया। वह घण्टों बैठी सूत काता करती। उसका सूत दिन-दिन बारीक होता जाता था। इसी सूत से वह विशम्भर के कुरते बनवाएगी।


       इन दिनों परीक्षा की तैयारियाँ थीं। आनन्द को सिर उठाने की फुरसत न मिलती। दो-एक बार वह रूपमणि के पास आया; पर ज्यादा देर बैठा नहीं शायद रूपमणि की शिथिलता ने उसे ज्यादा बैठने ही न दिया।


      एक महीना बीत गया।


      एक दिन शाम आनन्द आया। रूपमणि स्वराज्य-भवन जाने को तैयार थी। आनन्द ने भवें सिकोडक़र कहा-तुमसे तो अब बातें भी मुश्किल हैं।


      रूपमणि ने कुर्सी पर बैठकर कहा-तुम्हें भी तो किताबों से छुट्टी नहीं मिलती। आज की कुछ ताजी खबर नहीं मिली। स्वराज्य-भवन में रोज-रोज का हाल मालूम हो जाता है।


       आनन्द ने दार्शनिक उदासीनता से कहा-विशम्भर ने तो सुना, देहातों में खूब शोरगुल मचा रखा है। जो काम उसके लायक था, वह मिल गया। यहाँ उसकी जबान बन्द रहती थी। वहाँ देहातियों में खूब गरजता होगा; मगर आदमी दिलेर है।


      रूपमणि ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा; जो कह रही थीं; तुम्हारे लिए यह चर्चा अनधिकार चेष्टा है, और बोली-आदमी में अगर यह गुण है तो फिर उसके सारे अवगुण मिट जाते हैं। तुम्हें काँग्रेस बुलेटिन पढ़ने की क्यों फुरसत मिलती होगी। विशम्भर ने देहातों में ऐसी जागृति फैला दी है कि विलायती का एक सूत भी नहीं बिकने पाता और न नशे की दूकानों पर कोई जाता है। और मजा यह है कि पिकेटिंग करने की जरूरत नहीं पड़ती। अब तो पंचायतें खोल रहे हैं।


      आनन्द ने उपेक्षा भाव से कहा-तो समझ लो, अब उनके चलने के दिन भी आ गये हैं।


       रूपमणि ने जोश से कहा-इतना करके जाना बहुत सस्ता नहीं है। कल तो किसानों का एक बहुत बड़ा जलसा होने वाला था। पूरे परगने के लोग जमा हुए होंगे। सुना है, आजकल देहातों से कोई मुकदमा ही नहीं आता। वकीलों की नानी मरी जा रही है।


       आनन्द ने कड़वेपन से कहा-यही तो स्वराज्य का मजा है कि जमींदार, वकील और व्यापारी सब मरें। बस, केवल मजदूर और किसान रह जाएँ।


        रूपमणि ने समझ लिया, आज आनन्द तुलकर आया है। उसने भी जैसे आस्तीन चढ़ाते हुए कहा-तो तुम क्या चाहते हो कि जमींदार और वकील और व्यापारी गरीबों को चूस-चूसकर मोटे होते जाएँ और जिन सामाजिक व्यवस्थाओं में ऐसा महान् अन्याय हो रहा है, उनके खिलाफ जबान तक न खोली जाए? तुम तो समाजशास्त्र के पण्डित हो। क्या किसी अर्थ में यह व्यवस्था आदर्श कही जा सकती है? सभ्यता के तीन मुख्य सिद्धान्तों का ऐसी दशा में किसी न्यूनतम मात्रा में भी व्यवहार हो सकता है?


        आनन्द ने गर्म होकर कहा-शिक्षा और सम्पत्ति का प्रभुत्व हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा। हाँ, उसका रूप भले ही बदल जाए।


        रूपमणि ने आवेश से कहा-अगर स्वराज्य आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूँगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेजी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी हैं? कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाएँ। मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को आश्रय न मिल सके।
आनन्द-यह तुम्हारी निज की कल्पना होगी।


       रूपमणि-तुमने अभी इस आन्दोलन का साहित्य पढ़ा ही नहीं।


       आनन्द-न पढ़ा है, न पढऩा चाहता हूँ।


       रूपमणि-इससे राष्ट्र की कोई बड़ी हानि न होगी।


       आनन्द-तुम तो जैसे वह रही ही नहीं। बिलकुल काया-पलट हो गयी।


       सहसा डाकिए ने काँग्रेस बुलेटिन लाकर मेज पर रख दिया। रूपमणि ने अधीर होकर उसे खोला। पहले शीर्षक पर नजर पड़ते ही उसकी आँखों में जैसे नशा छा गया। अज्ञात रूप से गर्दन तन गयी और चेहरा एक अलौकिक तेज से दमक उठा।


         उसने आवेश में खड़ी होकर कहा-विशम्भर पकड़ लिए गये और दो साल की सजा हो गयी।


         आनन्द ने विरक्त मन से पूछा-किस मुआमले में सजा हुई?


         रूपमणि ने विशम्भर के फोटो को अभिमान की आँखों से देखकर कहा-रानीगंज में किसानों की विराट् सभा थी। वहीं पकड़ा है।


         आनन्द-मैंने तो पहले ही कहा था, दो साल के लिए जाएँगे। जिन्दगी खराब कर डाली।


         रूपमणि ने फटकार बतायी-क्या डिग्री ले लेने से ही आदमी का जीवन सफल हो जाता है? सारा ज्ञान, सारा अनुभव पुस्तकों ही में भरा हुआ है। मैं समझती हूँ, संसार और मानवी चरित्र का जितना अनुभव विशम्भर को दो सालों में हो जाएगा, उतना दर्शन और कानून की पोथियों से तुम्हें दो सौ वर्षों में भी न होगा। अगर शिक्षा का उद्देश्य चरित्रबल मानो, तो राष्ट्र-संग्राम में मनोबल के जितने साधन हैं, पेट के संग्राम में कभी हो ही नहीं सकते। तुम यह कह सकते हो कि हमारे लिए पेट की चिन्ता ही बहुत है, हमसे और कुछ हो ही नहीं सकता, हममें न उतना साहस है, न बल है, न धैर्य है, न संगठन, तो मैं मान जाऊँगी; लेकिन जातिहित के लिए प्राण देने वालों को बेवकूफ बनाना मुझसे नहीं सहा जा सकता। विशम्भर के इशारे पर आज लाखों आदमी सीना खोलकर खड़े हो जाएँगे। तुममें है जनता के सामने खड़े होने का हौसला? जिन लोगों ने तुम्हें पैरों के नीचे कुचल रखा है, जो तुम्हें कुत्तों से भी नीचे समझते हैं, उन्हीं की गुलामी करने के लिए तुम डिग्रियों पर जान दे रहे हो। तुम इसे अपने लिए गौरव की बात समझो, मैं नहीं समझती।


          आनन्द तिलमिला उठा। बोला-तुम तो पक्की क्रान्तिकारिणी हो गयीं इस वक्त।


          रूपमणि ने उसी आवेश में कहा-अगर सच्ची-खरी बातों में तुम्हें क्रान्ति की गन्ध मिले, तो मेरा दोष नहीं।


         'आज विशम्भर को बधाई देने के लिए जलसा जरूर होगा। क्या तुम उसमें जाओगी?'


         रूपमणि ने उग्रभाव से कहा-जरूर जाऊँगी, बोलूँगी भी, और कल रानीगंज भी चली जाऊँगी। विशम्भर ने जो दीपक जलाया है, वह मेरे जीते-जी बुझने न पाएगा।


         आनन्द ने डूबते हुए आदमी की तरह तिनके का सहारा लिया-अपनी अम्माँ और दादा से पूछ लिया है?


          'पूछ लूँगी!'


          और वह तुम्हें अनुमति भी दे देंगे?'


           सिद्धान्त के विषय में अपनी आत्मा का आदेश सर्वोपरि होता है।'


           'अच्छा, यह नयी बात मालूम हुई।'


            यह कहता हुआ आनन्द उठ खड़ा हुआ और बिना हाथ मिलाये कमरे के बाहर निकल गया। उसके पैर इस तरह लडख़ड़ा रहे थे, कि अब गिरा, अब गिरा।















 

शिरीष के फूल - हजारी प्रसाद द्विवेदी





शिरीष के फूल

- हजारी प्रसाद द्विवेदी



जहाँ बैठके यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्घूम अग्निकुण्ड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गर्मी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आसपास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसन्त ऋतु के पलाश की भाँति।
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कबीरदास को इस तरह पन्द्रह दिन के लिए लहक उठना पसन्द नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़- ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’! ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसन्त के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मन्त्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितान्त ठूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।

शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रईस, जिन मंगल-जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक शिरीष भी है (वृहत्संहिता,५५१३) अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष के छायादार और घनमसृण हरीतिमा से परिवेष्टित वृक्ष-वाटिका जरूर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेंखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर जरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वजन भी तो बहुत ज्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुन्दिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें !

शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचारित की होगी। उनका इस पुष्प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गये हैं, शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिल्कुल नहीं- ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतत्रिणाम्।’ अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, मैं दूसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है ! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नये फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नये फल-पत्ते मिलकर धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसन्त के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्रसे मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।

मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत् के अतिपरिचित और अति प्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगायी थी- ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरन्त प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरन्तर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जायेंगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किये रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!

एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हिजरत न-जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमण्डल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तन्तुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक।

कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किये-कराये का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? कहते हैं कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने गर्वपूर्वक कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे वाल्मीकि और तीसरे व्यास। एक ने वेदों को दिया, दूसरे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अतिरिक्त और कोई यदि कवि होने का दावा करें तो मैं कर्णाट-राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ- "तेषां मूर्ध्नि ददामि वामचरणं कर्णाट-राजप्रिया!" मैं जानता हूँ कि इस उपालम्भ से दुनिया का कोई कवि हारा नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई लजाये नहीं तो उसे डाँटा भी न जाय। मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो। शिरीष की मस्ती की ओर देखो। लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोई किसी की सुनता नहीं। मरने दो!
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कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध-प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छन्द बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छन्द बना लेते थे- तुक भी जोड़ ही सकते होंगे- इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दसवेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदससाद्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुन्तला बहुत सुन्दर थी। सुन्दर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुन्दर हृदय से वह सौन्दर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुन्तला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यन्त भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुन्तला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुन्तला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गये हैं, जिसके केसर गण्डस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चन्द्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
कृतं न कर्णापितबन्धनं सखे
शिरीषमागण्डविलम्बिकेसरम्।
न वा शरच्चन्द्रमरीविकोमलं
मृणालसूत्रं रचितं स्तनान्तरे।।

कालिदास ने यह श्लोक न लिख दिया होता तो मैं समझता कि वे भी बस और कवियों की भाँति कवि थे, सौन्दर्य पर मुग्ध, दुख से अभिभूत, सुख से गद्गद! पर कालिदास सौन्दर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदण्ड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान् थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिन्दी कवि सुमित्रानन्दन पन्त में है। कविवर रवीन्द्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा है- ‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, वह चाह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गन्तव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने-आपमें समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।

शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन- धूप, वर्षा, आँधी, लू- अपने-आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवण्डर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है ? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों सम्भव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गाँधी भी वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब तब हूक उठती- हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!




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शुक्रवार, 6 मई 2022

सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य में प्रकृति चित्रण

 पन्त का प्रकृति चित्रण

       कविवर सुमित्रानन्दन पन्त प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते हैं। उनके काव्य में प्रकृति सुन्दरी की मनोहर छवियां अंकित की गई हैं। वे कोमल कल्पना के कवि हैं और अपनी सुकुमार कल्पना के बल पर प्रकृति का ऐसा अनुपम चित्रण करते हैं कि समग्र दृश्य पाठकों के समक्ष साकार हो जाता है। प्रकृति ने कवि को अनन्त कल्पनाएं, असीम भावनाएं एवं असंख्य सौन्दर्यनुभूतियां प्रदान की है। वे स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि कविता करने की प्रेरणा मुझे प्रकृति निरीक्षण से प्राप्त हुई है। 'आधुनिक कवि' की भूमिका में पन्त जी लिखते हैं : "कविता करने की प्रणा भुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कुर्माचल प्रदेश को है। मैं घण्टों एकान्त में बैटा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।" प्रकृति निरीक्षण और प्रकृति प्रेम पंत जी के स्वभाव के अंग बन गए थे। परिणामतः प्रकृति कवि की चिर सहचरी बन गई। कवि उसकी रूप सुषमा पर इतना मुग्ध है कि नारी सौन्दर्य की भी अवहेलना कर देता है :

                 छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,

                 तोड़ प्रकृति से भी माया।

                 बाले तेरे बाल जाल में

                 कैसे उलझा दें लोचन?

                 भूल अभी से इस जग को॥

       पन्त के प्रकृति चित्रण की एक विशेषता यह भी है कि उन्हें प्रकृति के कोमल एवं सुकुमार रूप ने ही अधिक मोहिन किया है। सामान्यतः उनके काव्य में प्रकृति के भयानक रूप का चत्रिण नहीं है। प्रसाद जी की भांति वे 'झंझा झकोर गर्जन-तर्जन' वाली प्रकृति का निरूपण नहीं करते। पन्त और प्रसाद के प्रकृति चित्रण का यही प्रमुख अन्तर है। पन्त जी ने 'आधुनिक कवि' में स्वीकार भी किया है-"साधारणतः प्रकृति के सुन्दर रूप ने ही मुझे अधिक लुभाया है।" पन्त के काव्य में प्रकृति के यद्यपि सभी रूप उपलब्ध होते हैं तथापि आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण उन्हें विशेष प्रिय है। इसके अतिरिक्त वे उद्दीपन रूप में, संवेदनात्मक रूप में, रहस्यात्मक रूप में, प्रतीकात्मक रूप में अलंकार योजना के रूप में, मानवीकरण रूप में तथा लोकशिक्षा के रूप में प्रकृति चित्रण करते दिखाई पड़ते हैं।

       जहां प्रकृति को आलम्बन बनाकर उसके नाना रूपों का चित्रण किया जाता है, वहां आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे 'संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण' भी कहा जाता है। पन्त जी की अनेक कविताओं यथा-एकतारा, गुंजन, परिवर्तन, बादल, हिमाद्रि, नौका विहार आदि में आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण किया गया है। आंस कविता में बादलों' के सौन्दर्य का चित्रण अग्र पंक्तियों में किया गया है '

           बादलों के छायामय खेल, घूमते हैं आंखों में फैल।

           अवनि औ अम्बर के वे खेल शैल में जलद जलद में शैल।।

कहीं-कहीं "नाम परिगणन शैली' में भी प्रकृति चित्रण किया गया है, यथा :

           लहलह-पालक महमह धनियां लौकी औ सेम फली फली।

            मखमूली टमाटर, हुए लाल मिरचों की बड़ी हरी थैली॥

        जहां प्रकृति मानवीय भावनाओं को उद्दीप्त करती है. वहां उद्दीपन रूप में प्रकृति चित्रण होता है। संयोग काल में जहां प्रकृति संयोग सुख को उद्दीप्त करती है, वहीं बियोग काल में विरह वेदना को उद्दीप्त करती है। मधुवन, गुंजन, प्रथम मिलन, मधूस्मिति आदि कविताओं में कवि प्रकृति के उस रूप का चित्रण करता है जिसमें वह संयोग के अवसर पर भावों को उद्दीप्त करती है। यथा :

              आज मुकुलित कुसुमित सब ओर तुम्हारी छबि की छटा अपार।

              फिर रहे उन्मद भधु प्रिय भौर नयन पलको के पंख पसार||

इसके ठीक विपरीत वियोग काल में यही प्रवकृति विरह वेदना को उद्दीप्त करती सी जान पड़ती है। यथा- देखता हूं जब उपवन पियालों में फूलों के त्रिये भर-भर अपना यौवन पिलाता है मधुकर को अकेली आकुलता सी प्राण कही तब करती मूदु आघात सिहर उठता कृश गात ठहर जाते हैं पग अज्ञात। उपवन के खिले हुए पुष्प एवं उन पर गुजार करते भ्रमरों को देखकर विरही के प्राण व्याकुल हो उठते हैं तथा शरीर सिहरबीउठता है।

      जहां प्रकृति मानव के साथ सम्वेदना व्यक्त करती हुई मानव की प्रसन्नता एवं हास-उल्लास के क्षणों में स्वयं उल्लास व्यक्त करती है तथा उसके दुःख के क्षणों में स्वयं रुदन करती जान पड़ती है, वहां सम्वेदनात्मक रूप में प्रकृति चित्रण माना जाता है। परिवर्तन कविता की इन पंक्तियों में मानव जीवन की क्षणभंगुरता को देखकर आकाश रोता सा प्रतीत होता है और वायु निश्वास भरती सी लगती है :

                अचिरता देख जगत की आप शून्य भरता समीर निश्वास।

                 "डालता पातों पर चुपचाप ओस के आंसू नीलाकाश।।

         छायावादी कवि पन्त ने प्रकृति में उस अज्ञात अगोचर सत्ता के दर्शन जहां किए हैं वहां रहस्यात्मक रूप में प्रकृति चित्रण माना गया है। पन्त की 'मौन निमन्त्रण' कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है क्योंकि उसमें कवि को सर्वत्र उस अज्ञात सत्ता के मौन निमन्त्रण का आभास होता है।

                  देख वसुधा का यौवन भार गूंज उठता है जब मधुमास।

              विभुर उर के से मूदु उद्गार कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास।।

                 न जाने सौरभ के मिस कौन सन्देशा मुझे भेजता मौन?

          बसन्त ऋतु में जब पुष्प खिल जाते हैं तब उनमें से प्रस्फुटित होने वाली सुगंध के द्वारा कोई अज्ञात सत्ता मुझे अपना मौन सन्देश भेजती प्रतीत होती है।

          छायावादी कवियों ने प्रतीकों का प्रयोग भी अपने काव्य में प्रचुरता से किया है। प्रकृति के उपकरण उन्होंने विभिन्न प्रतीकों के रूप में अपने काव्य में प्रयुक्त किए हैं। उदाहरण के लिए 'उर की डाली' कविता को ले सकते हैं, जिसमें पन्त जी ने कलि, किसलय, फूल को आनन्द एवं उल्लास का प्रतीक मानते हुए लिखा है।

              देखें सबके उर की डाली-किसने रे क्या-क्या चुने फूल।

          जग के छबि उपवन से अकूल? इसमें कलि, किसलय, कुसुम, शूला।

         पंत जी ने प्रकृति का चित्रण अलंकार निरूपण में भी किया है। उन्हें उपमा, रूपक, उठ्रेक्षा, मानवीकरण, आदि अलंकार विशेष प्रिय हैं। उपमानों का चयन वे प्रकृति से ही करते हैं। यथा-

              मेरा पावस ऋतु सा जीवन, मानस सा उमड़ा अपार मन।

                गहरे धुंधले धुले सांबले मेघों से मेरे भरे नयना।

यहां उपमा अलंकार की सुन्दर योजना है तो निम्नबीपंक्तियों में सांगरूपक अलंकार है :

                           अहे वासुकि सहस्र फना

                   लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर।

                    छोड़ रहे हैं जग के विक्षत बक्षस्थल पर।

                   मृत्यु तुम्हारा गरल दन्त कंचुक कल्पान्तर।

                 अखिल बिश्व ही विवर बक्र कुण्डल दिकू मण्डल!!

यहां परिवर्तन को हजार फनों वाला वासुकि सर्प बताया है। मृत्यु ही इसका विषदन्त है और युग परिवर्तन ही इसकी केंचुली है। सम्पूर्ण संसार ही इसका विवर है तथा इसने अपनी कुण्डली में सम्पूर्ण दिशाओं को बांध रखा है ।

       छायावादी कवियों ने प्रकृति पर मानवीय चेतना का आरोप उसे करते मानव की भांति हँसते, रोते एवं विविध क्रिया हुए कलाप करते हुए दिखाया है। पन्त जी ने छाया, बादल, संध्या, नौका-विहार, चांदनी आदि अनेक कविताओं में प्रकृति का मानवीकरण किया है। गंगा को एक तन्वंगी नायिका के समान बालू रूपी शैया पर थककर लेटा हुआ वे चित्रित करते हैं:

            सैकत शैया पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरला

                             लेटी है श्रान्त क्लांत निश्चल।

इसी प्रकार 'छाया' को एक रूपसी के रूप में वे चुपचाप व्योम से पृथ्वी पर उतरते हुए दिखाते हैं। यथा :

                     कौन तुम रूपसि कौन?

                   व्योम से उतर रही चुपचाप

                 छिपी निज छाया छबि में आप

                   सुनहला फैला केश कलाप-

                    मधुर, मंथर, मूदु मौन।

        प्रकृति हमें अनेक प्रकार की शिक्षाएं भी देती है। प्रकृति की परिवर्तनशीलता हमें यह बताती है कि जीवन परिवर्तनशील है। यहां एक जैसी स्थितियां सदैव नहीं रहतीं। जीवन में सुख-दुख का चक्र उसी प्रकार चलता रहता है। जैसे प्रकृति में वसन्त के दिन हमेशा नहीं रहते। मधुऋतु में वृक्ष की जो शाखा फूलों के भार से झुकी रहती है वही शिशिर ऋतु में पतझड़ के कारण सूनी हो जाती है ठीक इसी प्रकार यौवन में जो शरीर शक्ति, स्फूर्ति एवं सुन्दरता से युक्त होता है वही वृद्धावस्था में अशक्त एवं सौन्दर्यविहीन हो जाता है :

           आज तो सौरभ का मधुमास शिशिर में भरता सूनी सांस।

           वही मधुऋतु की गुंजित डाल झुकी थी जो यौवन के भार।

           अरकिंचनता में निज तत्काल सिहर उठती जीवन है भार।।

       कविवर पन्त ने प्रकृति का सम्पूर्ण सौन्दर्य अपनी कविताओं में समेटने का स्तुत्य प्रयास किया है । वे प्रकृति के कुशल चितेरे है। आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण करने वाले हिन्दी कवियों में वे अग्रगण्य हैं। प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा को अपनी लेखनी का विषय बनाने वाले पंत जी निश्चय ही प्रकृति प्रेमी हैं। कवि ने प्रकृति के ताने-बाने में मानव आत्मा का रूप रंग भरकर उसका अपूर्व अंकन किया है। डा. देवराज के अनुसार "प्रकृति पन्त की सौन्दर्य दृष्टि का सहज आलम्बन है और उनकी वाणी का सहज विषय।" हिन्दी काव्य में पन्त जी प्रकृति चित्रण के लिए जाने जाते हैं। निश्चय ही प्रकृति के इस सुकुमार कवि ने प्राकृतिक सुषमा का सहज, आकर्षक एवं मनोहारी चित्रण अपनी रचनाओं में अंकित किया है।

 

                                                                                                            गोबिंद यादव
                                                                                                        बिरसा मुंडा कॉलेज
                                                                                                          मो. 6294524332


मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु

  मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु   “घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति क...