मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना की प्रवृतियां।

      हिंदी में विशुद्ध आलोचना का प्रारंभ शुक्ल युग से माना जाता है। शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना में ना कोई आदर्श था ना कोई सिद्धांत। शुक्ल के आगमन के पश्चात हिंदी आलोचना में एक विराट परिवर्तन देखने को मिलता है। शुक्ल ने साहित्य के वस्तु वादी दृष्टिकोण का विकास किया और सामाजिक विकास के समानांतर साहित्य को देखने और परखने पर बल दिया। शुक्ल युगीन आलोचना आचार्य रामचंद्र शुक्ल को केंद्र में रखकर चलती है। उन्होंने आलोचना के नवीन मानदंडों की स्थापना की और समीक्षा पद्धति का सुनिश्चित आधार दिया। शुक्ल युगीन आलोचना युग की परिस्थिति के परिपेक्ष में कृति के मूल्यांकन पर बल दिया।

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         शुक्ल युगीन आलोचना का प्रारंभ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के महान आलोचनात्मक दृष्टि से प्रारंभ होता है। शुक्ल युगीन आलोचना की प्रमुख प्रवृतियां निम्नलिखित है-
1 तुलनात्मक आलोचना- शुक्ल की आलोचना के पूर्व जिस तुलनात्मक आलोचना का प्रारंभ हुआ था उसने आलोचक अपनी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के कारण किसी भी कवि या लेखक को श्रेष्ठ या हिन् सिद्ध करने की कोशिश करते थे। निश्चित रूप से आलोचना के शुद्ध प्रतिमान का निर्धारण तब तक नहीं हो सका था। निश्चित रूप से तुलनात्मक आलोचना के स्वस्थ एवं शुद्ध रूप का प्रारंभ शुक्ल युग से हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आलोचना के नवीन मानदंडों की स्थापना की और समीक्षा पद्धति का सुनिश्चित पथ निश्चित किया।
2 विश्लेषणात्मक आलोचना- शुक्ल युग ने आलोचना की विश्लेषणात्मक पद्धति अधिक प्रचलित थी। स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना पद्धति विश्लेषणात्मक पद्धति थी। इसीलिए वे रचना के गुण दोष तक सीमित न रहकर रचनाकार के विशेषताओं एवं उसकी अंतर प्रवृत्ति की छानबीन करते हैं। हिंदी के अन्य आलोचकों में जहां एकांगी दृष्टिकोण का आरोप लगाया जा सकता है वहीं शुक्ला इन आरोपों से परे है। शुक्ल की आलोचना दृष्टि कुछ मूल्यों पर आधारित है। लोकमंगल की साधना, रस सिद्धांत आदि मूल्यों पर आधारित आलोचनात्मक निबंध है।
3 शास्त्रीय आलोचना- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने शास्त्रीय आलोचना का विवेचन मौलिक ढंग से किया है। शुक्ल का रस मीमांसा शास्त्रीय विवेचन का ग्रंथ है। जायसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, गोस्वामी तुलसीदास आदि ग्रंथों में इन कवियों का मूल्यांकन वे शास्त्रीय विवेचन के आधार पर करते हैं।
4 कवि के व्यक्तित्व का अध्ययन- शुक्ल युगीन आलोचकों ने कवियों के रचनाओं के अध्ययन के साथ-साथ कवि के व्यक्तित्व को भी समझने का प्रयास किया। कवियों की सामान्य प्रवृत्तियों को उद्घाटित करना इस युग के आलोचकों का प्रमुख उद्देश्य हो गया। इसके अतिरिक्त उनकी कृतियों के आधार पर उनकी चिंतन धारा का अध्ययन भी किया। जैसे डॉ रामकुमार वर्मा द्वारा लिखित कबीर, पितांबर दत्त द्वारा लिखित निर्गुण संप्रदाय आदि व्यक्तिगत अध्ययन संबंधी आलोचना है।



5 देश काल की समीक्षा- साहित्य को उसके युगीन परिस्थितियों में रखकर आंकने की प्रवृत्ति का प्रारंभ आचार्य शुक्ल ने ही किया। उन्होंने तुलसी आदि महान कवियों के महत्व को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रखकर आका। हिंदी शब्द सागर की भूमिका में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा। इतना ही नहीं कवियों एवं काव्य धारा के देशकाल पर विचार किया। इस युग के अन्य आलोचकों ने भी इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का उपयोग किया। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने भूषण की कविता को देश काल की परिस्थितियों में रखकर उस पर विचार किया।
      निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि शुक्ल युगीन आलोचना शास्त्रीय विवेचन, तुलनात्मक विश्लेषणात्मक आदि प्रवृत्तियों को अपने में समेटे हुए हैं। शुक्ल का महान व्यक्तित्व  इस आलोचना को एक नवीन दिशा प्रदान करता है। आलोचना के तृतीय उत्थान से ही हिंदी में विशुद्ध आलोचना का प्रारंभ होता है।


                                                  
         
                                                                                                                                                     गोबिंद यादव
                                                                                                        बिरसा मुंडा कॉलेज 
                                                                                         ( हातिघिसा, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल )
                                                                                                          मो. 6294524332




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