गुरुवार, 16 मार्च 2023

सम्प्रेषण

 

सम्प्रेषण-

अर्थ- विचार अथवा सन्देश का एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रेषित होना सम्प्रेषण कहलाता है। इसमें एक सन्देश प्रेषित करने वाला एवम एक सन्देश प्राप्त करने वाला होता है।

     मन में आए विचारों का बच्चों से बातचीत करता है 3और उनसे कुछ प्रश्न पूछता है, उन की कमियों को दूर करता है, उनके जवाब सुनता है, यह सभी संप्रेषण के आग होते हैं। मनुष्य भी अपने दिन प्रतिदिन और दिनचर्या में संप्रेषण का सहारा लेता है। हम अपने दिन प्रतिदिन के कार्य में संप्रेषण के माध्यम से उन्हें आसान बनाते हैं।

अवधारणा-अलग अलग विद्वानों ने संप्रेषण की अलग अलग परिभाषाये दी है-

एइगर डेल-संप्रेषण ऐसी प्रक्रिया है जिसमे विचारों एवम भवनाओ का लाभ के लिए आदान प्रदान होता है।

बाले-सप्रेषण मनुष्य को उत्तेजित करने की विवेकी प्रक्रिया है। आदान प्रदान करना सप्रेषण कहलाता है। सप्रेषण शब्द की उत्पत्ति सेटिन भाषा के शब्द Communiesसे हुआ। संप्रेषण एक ऐसी प्रोसेस है जिसके अतर्गत मनुष्य अपने विचारों का आदान प्रदान करता है। शिक्षण में संप्रेषण का अत्यधिक महत्व है। अगर हम बात करे कि सप्रेषण और शिक्षा का वया संबंध है तो हम सीधे तौर पर बोल सकते हैं कि संप्रेषण के बिना शिक्षा और शिक्षण करना संभव ही नहीं है। अध्यापक शिक्षण के दौरान

अरस्तु-संप्रेषण ऐसा माध्यम है कि एक व्यक्ति दूसरे को इस प्रकार प्रभावित कर सके ताकि वांछित फल की प्राप्ति हो सके।

संप्रेषण के प्रकार 

1. अनौपचारिक सम्प्रेषण :- जब एक समूह में किसी को किसी से भी बात करने की आजादी हो तो उसे ग्रेपवाइन संप्रेषण कहते हैं। ग्रेपवाइन संप्रेषण में कोई अनौपचारिक वैज्ञानिक तरीके से बात नहीं की जाती है। इसमें सभी आजाद होते है कोई किसी से भी बात कर सकते है। उदाहरण – जब स्कूल में अवकाश होता है तो सभी बच्चे आजाद होते हैं। अतः अब आपस में किसी से भी बात कर सकते है।

2. औपचारिक संप्रेषण :- जब बात करने का तरीका एक विधिवत और वैज्ञानिक हो उसे औपचारिक संप्रेषण कहते हैं। औपचारिक संप्रेषण में काम करने का तरीका बहुत ही सुलझा हुआ होता है और सभी अपने अपने कामों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। उदाहरण - किसी ऑफिस में जब कोई जूनियर अपने सीनियर से बात करता है।

3. एकल । एक तरफा / वन वे संप्रेषण  :- जब सदेश एक तरफ से ही होता है तो एकल या वन वे संप्रेषण होता है। इसमें भेजने वाला संदेश भेज टेता हैं और प्राप्तकता उसे ग्रहण कर लेता है। उदाहरण कक्षा में अध्यापक ने बच्चों को बोला कि वह खेड़े हो जाइए ती बच्चे खड़े हो जाते हैं तो बह वन वे स्प्रेषण हुआ।

4. द्वितरफा / टूवे संप्रेषण:- जब दो व्यक्ति आपस में बातचीत करते हैं तो उन में तर्क - वितर्क होता है अर्थात प्राप्तकर्ता और भेजने वाला दोनों ही सम्मिलित होते हैं। उदाहरण - अध्यापक कक्षा में बच्चों से प्रश्न करता है तो बच्चे उसका उत्तर देते हैं तो वे टू वे संप्रेशन हुआ।

5. अंतः बैयक्तिक संप्रेषण :- जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं के बारे में सोचता है तो उसे अंतः वैयक्तिक संप्रेषण कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति से प्रशन करता है तो अंत वैयक्तिक संप्रेषण कहलाता है। उदाहरण - परीक्षा कक्ष में जाने से पहले विद्यार्थी खुद से बात करता है।

6. अतर वैयक्तिक संप्रेषण :- जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच बातधीत होती है अर्थात जब हम दूसरों की इच्छाओं के बारे में बात करते हैं तो अंतर वैयक्तिक संप्रैषण कहलाता है। उदाहरण - मनोवैज्ञानिक और परामर्शदाता हमेशा दूसरों के बारे में बताते हैं अतः अंतर वैयक्तिक संप्रेषण हुआ।

7. शाब्दिक संप्रेषण:- शाब्दिक संप्रेषण में सदैव भाषा का प्रयोग किया जाता है। शाब्दिक संप्रेषण होता है जब मौखिक अभिव्यक्ति के दवारा अपने शब्दों को प्रस्तुत करते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में सबसे ज्यादा शाब्दिक संप्रेषण का ही प्रयोग करते हैं।

8. अशाब्दिक संप्रेषण :- जब हम इशारो चिन्हों और कूट शाषा में बातचीत करते हैं तो वह अशाब्दिक संप्रेषण कहलाता है। उदाहरण - बहरे बच्चों से हम हाथों से इशारे करके बातचीत करते हैं।

संप्रेषण की आवश्यकता एवं महत्व

संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है यह उसके विकास और उत्तरोत्तर उन्नति की ओर ले जाने में सक्षम है अतः प्रबंधक और प्रशासन की दृष्टि से उपयोगी है और संगठन को प्रभावशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है संप्रेषण को आवश्यकता एवं महत्व को हम निम्नलिखित रूप में व्यक्त कर सकते है।

(१) विचारों के आदान-प्रदान में सुविधा- संप्रेषण के माध्यम से प्रधानाध्यापक शिक्षक छात्र कर्मचारी एवं अन्य अधिकारीगण के मध्य विचारों का भावों का सूचनाओं में आदान-प्रदान सुगमता से हो जाता है। निर्धारित समय और उपयुक्त व्यक्ति को उपयुक्त सूचना मिलने से उस की प्रभावशीलता में वृद्धि होती है और विकास में उत्तरोत्तर उन्नति के शिखर पर पहुंचने का प्रयास संभव हो पाता है।

(२) प्रदीपप्रदीप विचारधाराओं की समाप्ति- संप्रेषण के द्वारा एक दूसरे व्यक्ति के मन में बैठी विरोधी विचारधारा समाप्त हो जाती है जो व्यक्ति एक दूसरे के प्रति मन में कट्ता बनाए रखते है सम्प्रेषण उस कट्ता को दूर करता है इस प्रकार विकास का एक सौदर्य पूर्ण वातावरण बनता है इससे संप्रेषण की उपयोगिता में वृद्धि होती है।

(३) संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में आपसी सहयोग-सप्रेषण अधिकारी और कर्मचारी के मध्य फैली गलतफहमियों को दूर करता है दोनों आपस में बातें करके अथवा सूचना के आदान प्रदान से एक दूसरे के साथ सहयोग करने को तत्पर हो जाते हैं और अधिकारी भी कर्मचारी हित पर ध्यान देने लगते हैं इस प्रकार संस्था का विकास संभव हो पाता है और संप्रेषण की सार्थकता सिद्ध हो जाती है।

(४) प्रबंध को शक्तिशाली बनाना--संप्रेषण से प्रबंधन और प्रशासन शक्तिशाली बनते हैं। आपसी विचार-विमर्श से उचित सुझाव से विविध समस्याओं एवं कठिनाइयों का समाधान खोज लिया जाता है समस्या का समाधान खोजना प्रबंध को शक्तिशाली बनाने में सहायता करता है। इसे संप्रेषण की उपयोगिता में वृद्धि होती है।

(५) नेतृत्व क्षमता का विकास-सप्रेषण के माध्यम से नेतृत्व क्षमता विकसित होती है एक दूसरे के हितों का ज्ञान होने से संगठन बनता है यह संगठन किसी एक व्यक्ति द्वारा संचालित होता है यह व्यक्ति संप्रेषण के द्वारा अधिकांश को उसके हित को सामने रखते अनुयायी तैयार करता है इस प्रकार नेतृत्व क्षमता का विकास होता है इससे संप्रेषण की उपयोगिता में और अधिक वृद्धि होती है।

सप्रेषण की विशेषता-

1. परस्पर विचारों एवं भावनाओं का आदान-प्रदान किया जाता है।

2. संप्रेषण एक पारस्परिक संबंध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है।

3. यह दविवाही प्रक्रिया है। इसमें दो पक्ष होते हैं- एक सदेश देने वाला तथा दूसरा संदेश ग्रहण करने वाला|

4. संप्रेषण प्रक्रिया एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया होती है।

5. विचारों एवं भावनाओं के आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाता है।

6. संप्रेषण की प्रक्रिया में अनुभव की साझेदारी होती है।

7. संप्रेषण की प्रक्रिया में परस्पर अंतः प्रक्रिया पृष्ठपोषण होना आवश्यक होता है।

8. इसमें आदान-प्रदान की प्रक्रिया को पृष्ठपोषण दिया जाता है।

9. सप्रेषण में प्रत्यक्षीकरण समावेशित होता है।

10. सप्रेषण सदैव गत्यात्मक प्रक्रिया होती है।



संक्षेपण

 

संक्षेपण

संक्षेपण अथवा सार-लेखन का आशय है किसी अनुच्छेद, परिच्छेद, विस्तृत टिप्पणी अथवा प्रतिवेदन को सक्षिप्त कर देना। किसी बड़े पाठ (निबन्ध, लेख, शोध प्रबन्ध आदि) में मुख्य विचारों, तर्कों आदि को लघुतर आकार में प्रस्तुत करना सक्षेपण (critical precis writing) कहलाता है। इसकी संरचना भी नि्बन्ध जैसी ही होती है। सार लेखन की आवश्यकता कार्यालय, वाणिज्य, पत्रकारिता, शिक्षा आदि कई क्षेत्रों में पड़ती है। संक्षेपण को अंग्रजी में 'समराईजिंग' 'प्रेसी राइटिंग' अथवा प्रेसी भी कहते हैं। परिचय

संक्षेपण की प्रक्रिया

संक्षेपण की प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। मूल पाठ से संक्षेपण में अ्थ का संप्रेषण भिन्न नहीं होना चाहिए। दंगल झाल्टे ने इसकी प्रक्रिया को निम्नवत रूप से समझाया है :

1. संक्षेपण करते समय सबसे पहले मूल अनुच्छेद या विषय-वस्तु को एकांधिक बार ध्यान पूर्वक पढ़ लेना चाहिए। इससे मूल अनुच्छेद का भावार्थ समझ में आ जाएगा तब तक सार-लेखन की शुरूआत नहीं करनी चाहिए जब तक कि मूल विषय का भावार्थ समझ में न आ जाए।

2. मूल अनुच्छेद को पढ़ने के बाद महत्त्वपूर्ण तथ्यों, बातों तथा विचारों को रेखांकित कर लिया जाना चाहिए। रेखांकन करते समय मूल विषय से संबंधित कोई भी महत्त्वपूर्ण अंश नहीं छूटना चाहिए।

3. इसके बाद मूल में व्यक्त किए गए विचारों, भावों तथा तथ्यों को क्रमबद्ध कर लेना चाहिए।

4. मूल अनुच्छेद का एक तिहाई में संक्षेपण करना चाहिए। इसमें संक्षेपक को अपनी ओर से कोई भी तर्क-वितर्क करने तथा किसी अतिरिक्त अंश को जोड़ने की अनुमति या छूट नहीं होती।

5. संक्षेपण को अंतिम रूप दिए जाने से पूर्व उसका पहले कच्चा रूप तैयार कर लेना चाहिए और अच्छी तरह देख लिया जाना चाहिए कि सभी महत्त्वपूर्ण भावों का अंतर्भाव उसमें हो चुका है या नहीं।

6. संक्षेपण तैयार करते समय मूल अनुच्छेद में बर्णित या उल्लिखित कहावतें, मुहावरे, वाक् प्रचार तथा अलंकारआदि को हटा देना चाहिए।

7. संक्षेपण तैयार करने के बाद उसके लिए सुरयोग्य शीर्षक का चयन किया जाना चाहिए।



पल्लवन

 

पल्लवन

किसी निर्धारित विषय जैसे सुत्र-वाक्य, उक्ति या विवेच्य-बिन्दु को उदाहरण, तर्क आदि से पुष्ट करते देना पल्लवन (expansion) कहलाता है। इसे विस्तारण, भाव-विस्तारण, भाव-पल्लवन आदि प्रवाहमयी, सहज अभिव्यक्ति-शैली में मॉलिक, सारगर्भित विस्तार भी कहा जाता है। सूत्र रूप में लिखी या कही गई बात के गर्भ में भाव और विचारों का एक पूंज छिपा होता है। विदवान जन एक पंक्ति पर घंटों बोल लेते हैं और कई बार तो एक पूरी पुस्तक ही रच डालते हैं। यही कला 'पल्लवन' कहलाती है।

कुछ सामान्य नियम:- (1) पल्लवन के लिए मूल अवतरण के वाक्य, सुक्ति, लोकोक्ति अथवा कहावत को ध्यानपूर्वक पढिए, ताकि मूल के सम्पूर्ण भाव अच्छी तरह पल्लवन के समझ में आ जायें।

(2) मूल विचार अथवा भाव के नीचे दबे अन्य सहायक विचारों को समझने की चेष्टा कीजिए।

(3) मूल और गौण विचारों को समझ लेने के बाद एक-एक कर सभी निहित विचारों को एक-एक अनुच्छेद में लिखना आरम्भ कीजिए, ताकि कोई भी भाव अथवा विचार छूटने न पाय।

(4) अर्थ अथवा विचार का विस्तार करते समय उसकी पुष्टि में जहाँ-तहाँ ऊपर से उदाहरण और तथ्य भी दिये जा सकते हैं।

(5) भाव और भाषा की अभिव्यक्ति में पूरी स्पष्टता, मौलिकता और सरलता होनी चाहिए। वाक्य छोटे-छोटे और भाषा अत्यन्त सरल होनी चाहिए। अलंकृत भाषा लिखने की चेष्टा न करना ही श्रेयस्कर है।

(6) पल्लवन के लेखन में अप्रासगिक बातों का अनावश्यक विस्तार या उल्लेख बिलकूल नहीं होना चाहिए।

(7) पल्लवन में लेखक को मूल तथा गौण भाव या विचार की टीका-टिप्पणी और आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसमे मूल लेखक के मनोभावो का ही चिस्तार और विश्लेषण होना चाहिए।

() पल्लवन की रचना हर हालत में अन्यपूरुष में होनी चाहिए।



मुहावरा और लोकोक्ति

 

मुहावरा- मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है । हिन्दी में मुहावरा को ’वाग्धारा’ कहते हैं, किन्तु यह अधिक प्रचलित नहीं है ।जब कोई वाक्यांश अपने सामान्य अर्थ को छोड़ कर विशेष अर्थ में रूढ़ हो जाता है, तो मुहावरा कहलाता है। उदाहरण : 'श्री गणेश करना का अर्थ है 'शुरू करना'; 'ईद का चाँद होना का अर्थ है 'बहुत दिनों बाद दिखाई देना'; 'चार चाँद लगाना' का अर्थ है 'प्रतिष्ठा बढ़ाना' आदि।

लोकोक्ति- 'लोकोक्ति' का अर्थ है 'लोक में प्रचलित '। जब कोई पूरा कथन किसी प्रसंग विशेष में उद्धृत किया जाता है तो लोकोक्ति कहलाता है। उदाहरण उस दिन बात-ही बात में राम ने कहा, हाँ, मैं अकेला ही कुँआ खोद लँगा। इस पर सबों ने हँसकर कहा, व्यर्थ बकबक करते हो, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' । यहाँ 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है 'एक व्यक्ति के करने से कोई कठिन काम पूरा नही होता'।

मुहावरा और लोकोक्ति में अंतर-

1. मुहावरा शब्दों के ऐसे समूह (वाक्यांश) को कहते हैं,जो अपने प्रचलित अर्थ को छोड़कर किसी दूसरे अर्थ(लाक्षणिक अर्थ) को व्यक्त करता है। जबकि लोकोक्ति जन साधारण में प्रचलित उस कथन या उक्ति को कहते हैं,जिसका प्रयोग उपालम्भ देने ,व्यंग्य करने,चुटकी लेने आदि के लिए किया जाता है।

2. मुहावरा वाक्यांश है, जबकि लोकोक्ति संपूर्ण वाक्य है।

3. मुहावरा वाक्य के आदि,मध्य या अंत में से कहीं भी आ सकता है,जबकि लोकोक्ति वाक्य के अंत में ही आती है।

4. मुहावरे में वाक्य के अनुसार परिवर्तन करना आवश्यक है, जबकि लोकोक्ति ज्यों की त्यों ही वाक्य में प्रयुक्त होती है।

5. मुहावरे का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता है,जबकि लोकोक्ति का प्रयोग स्वतंत्र रूप में होता है ।

6. मुहावरे के अंत में प्रायः 'ना' होता है, जबकि लोकोक्ति के अंत में अपवाद स्वरूप ही 'ना' आता है ।

7. मुहावरा वाक्य में चमत्कार उत्पन्न करने हेतु प्रयुक्त होता है, तो लोकोक्ति वाक्य में अभिव्यक्ति को प्रभावी बनाने




श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमो की सामाजिक जीवन में भूमिका

  

श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमो की सामाजिक जीवन में भूमिका:-

श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमों की उपयोगिता अलग-अलग स्थितियों तथा अलग-अलग सन्दर्भो में अलग-अलग है। किन्तु इसके बावजूद इन सभी माध्यमों का उद्देश्य तथा लक्ष्य एक ही है। समाज की शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक धरोहर को वृद्धिगत करने तथा व्यक्ति के 'जानने' एवं 'अभिव्यक्ति' के मूलभूत अधिकार को अक्षुण्ण रखने की दिशा में श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमों की उपयोगिता को मुख्यतः पाँच प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

(1) सूचना :-श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमों के द्वारा विश्व की विभिन्न घटनाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक स्थितियों की सूचना जन-सामान्य को यथाशीघ्र उपलब्ध हो जाती है । इसी के साथ, देश-विदेश की प्रगति तथा वैज्ञानिक आविष्कारों की गति की सूचना भी जनता तक पहुँचाते है।

(2) अभिव्यक्ति :- इन माध्यमों द्वारा व्यक्ति अपने विचार तथा भावों को स्वतन्त्र रूप से अभिव्यक्त करता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सरकारी माध्यमों की अपेक्षा श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमो में अधिक खुले रूप से रहती है। इसीलिए इनकी महत्ता अन्यों की तुलना में बढ़ जाती है।

(3) विचार तथा घटनाओं का विश्लेषण- श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यम देश-विदेश की घटनाओं की सूचना देने के साथ ही साथ उनके अर्थ का विश्लेषण भी करते हैं तथा सही मुद्दों तथा विचारों के लिए जन-सामान्य का मत-परिवर्तन करने में अहम् भूमिका अदा करते हैं।

(4) प्रगति एवं विकास-श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यम जन-सामान्य की सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति, आर्थिक विकास आदि के लिए सघन अभियान चलाते हैं तथा मिशन के रूप में कार्य करते हैं ।

(5) मनोरंजन -रेडियो, दूरदर्शन तथा फिल्म आदि श्रव्य और श्रव्य-दृश्य  माध्यम जनता के लिए रोचकता तथा मनोरंजन के प्रभावी साधन बनते हैं। इसके साथ, देश-विदेश की कला एवं संस्कृति के समुचित विकास के लिए भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं।



नाट्य तत्वो के आधार पर बकरी नाटक की समीक्षा





1 . नाट्य तत्वो के आधार पर बकरी नाटक की समीक्षा कीजिये ?

उत्तर- बकरी नाटक स्वतंत्र भारत के राजनीतिक क्षेत्र के चुनावी योजनाओ छलाओ ओर हथकंडो को सामने लाती है। राजनेता अपने कुकर्मो को किस प्रकार गांधी जी के सिद्धांतों की आढ़ में छुपाते है इसका यथार्थ चित्रण इस नाटक में हुआ है।

इस नाटक में बकरी गरीब जनता का प्रतीक है । इनके नाम पर विभिन्न संस्थाएं सेवा संघ शांति प्रतिस्थानो का निर्माण किया जाता है जिसका लक्ष्य लोगो के जमीन पर अवैध कब्जा अधिक होता है । इन संस्थानों के तले राजनेता अपनी रोटी सेकते है तथा इनके माध्यम से गरीब जनता का शोषण करते है। यह नाटक जनवादी चेतना का नाटक है जो आम आदमी की ब्यथा को कहता है जिसे नाटककार ने व्यंग्य शैली में लिखा है। इस नाटक का प्रकाशन सन 1974 ईस्वी में हुआ। जिसमें तत्कालीन राजनीति की कुरूपता को स्पष्ट रूप से खोलकर हमारे सामने रख दिया है, नाटक न सिर्फ सामहिक समस्यायों को उठाता है बल्कि एक बड़े भ्रष्ट्राचार का पर्दाफाश करने और लोगो को जागरूक करने का प्रयास करता है । यह इस नाटक की विशेषता रही है। नाट्य तत्वो के आधार पर इस नाटक का मूल्यांकन निम्न बिन्दुओ में किया जा सकता है -----


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1 . कथानक या कथावस्तु - नाटक की कथावस्तु दो अंको में विभाजित है प्रत्येक अंक में तीन- तीन दृश्य है प्रत्येक दृश्य के बाद नाट्य गायन की योजना है जिसके माध्यम से आसन्न स्थिति का विश्लेषण किया गया है । नाटक की कथावस्तु के माध्यम से साधारण ब्यक्ति के शोषण की कथा को लक्ष्य किया गया है राजनीति मे कैसे गांधी जी के विचारो और उनके नामो का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसका स्पस्ट चित्रण इस नाटक में हुआ है । गांववासियों की दायनिय स्थिति और उनकी मजबूरी का राजनेता किस प्रकार दुरुपयोग कर रहे हैं यह इस नाटक की केंद्रीय कथावस्तु है । कथा में तीन डाकू एक सिपाही मिलकर गांव की एक गरीब औरत की बकरी हड़प लेते है और इन्ही के माध्यम से सारी विडंबना प्रस्तुत की गई है । उनके संवाद उनकी मुद्राये उनके गीत अभिनय इस क्रूर सत्य को कहती चलती है ब्यवस्था की योजनाएं ओर उनके बीच गरीब औरत की बेबस पुकार ग्रामीणों की चिंता ब्यथा नाटकीय व्यंग्य ओर करुणा को समेटे हुए है । देश की वर्तमान स्थिति को नट इस प्रकार प्रकट करता है –

नेकी सच्चाई सरासत घर के सब कुछ ताक पर

थोरे नपटे भी यहाँ इतरा रहे है नाक पर

एक नारा ढलता है हर नई बर्बादी के बाद

आश्रम ही आश्रम खुल गए आजादी के बाद

बकरी नाटक में में बकरी संस्थान, बकरी स्मारक निधि , बकरी सेवा संघ जैसी संस्थाओ के नाम का उपयोग कर हमारे ब्यवस्था और सरकारी संस्थाएं आम आदमी के साथ किस प्रकार शोषण कर रही है इसका प्रतीकात्मक ढंग से पर्दाफास किया गया है । डाकुओं का आगे चलकर नेताओ में बदल जाना अपने आप व्यंग्य हो जाता है। नाटक में एक युवक द्वारा इस सारे भ्रस्टाचार ओर बिसंगतयो को तोड़ने और जनचेतना को जागृत करने की कोशिश करता दिखाया गया है। सर्वेश्वर की आस्था और विश्वास युवा शक्ति, युवा आक्रोश के प्रति थी । उन्होंने आम आदमी को बिना किसी सहानुभूति और भावुकता के उसके स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है यह युवक अंत मे नारे लगाकर नाटक को एक समाधान के संकेत पर पहुचाता है । युवक ग्रामीणों से कहता है – “बोलते क्यों नही ? आप इन्हें लुटेरा मानते है या नही इनके कहे में आकर आपने आपने गलती की या नही इनके लिए अपना सब कुछ गवा कर आपने पाप किया या नही ?” नाटक का अंत भविष्य की आशाओं से होता है । जिसमे युवक गरज कर कहता है “ अब यह मैं – मैं नही होगी बांधो इन लुटेरो को इंकलाब जिंदा – बाद “ आम जन को जागने के लिए और इन्हें लड़ने के लिए तैयार करता हुआ कहता है –

बहुत हो चुका अब हमारी है बारी

बदल के रहेंगे ये दुनिया तुम्हारी ।

2. पात्र योजना – पात्र योजना की दृष्टि से बकरी नाटक में मंत्री नेता पुलिस आदि सत्ताधारि सुबिधा भोगी पात्रो का चरित्र प्रस्तुत किया गया है जो सोषक का प्रतीक है विपति, युवक आदि शोषित लोगो का प्रतीक है सारे पात्र ब्यवस्था के विकृत रूप को दिखाने का प्रयत्न करते है सभी पात्र वर्गीय है । ये पात्र अपने नामो के अनुरूप सत्य अहिंसा और लोकतंत्र आदि की बड़ी बड़ी बातें करके भी ठीक इसके विपरीत आचरण करते है एक वर्ग उन पात्रो का भी है जो ब्यवस्था के प्रति आक्रोश ब्यक्त कर अपनी जनवादी चेतना का स्वरूप सामने रखता है। युवक इस जनवादी चेतना का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है ।

3. संवाद – संवाद की दृष्टि से यह नाटक गायन के संवाद में है क्योंकि यह एक गीति नाट्य है। एक ओर जहां डाकुओ के संवाद में शोषण का चित्र है – दुर्जन कर्मवीर अब इनके पास अब कुछ नही है ।

कर्मवीर- फिर भी काफी चढ़ावा आ गया । इसके ठीक विपरीत युवक अपने संवाद से प्रगतिशील का परिचय देता है। डाकुओं के चुनाव जीतने पर ग्रामीणों से कहता है –

युकक- कहो काका जीता दिया

एक ग्रामीण – सब राम जी की माया है तुम जेहल से छूट कर आ गए बचवा ।

युवक – हाँ एक और जेहल में ,

दूसरा ग्रामीण – और को जेहल बच्चा ,

युवक- आप लोगो का अज्ञान जेहल भी है, अब ये जीत के और लूटेंगे । पहले बकरी का नाम लेकर लूटते थे अब आप का ही नाम लेकर लूटेंगे ।

4. देशकाल और वातावरण - देशकाल एवं वातावरण की दृष्टि से यह नाटक सन 1974 का है जब राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई थी । देश और समाज राजनीतिक दुश्चक्रों में फसा हुआ था । उसी राजनीतिक दुष्चक्र का चित्रण इस नाटक में हुआ है । देश मे राजनीतिक भ्रस्टाचार और डाकुओं और गुंडो का नेताओं में बदलना देश की राजनीति की एक बहुत बड़ी विसंगति थी जिसका चित्रण नाटककार ने किया है ।

5. भाषा शैली - भाषा की दृष्टि से बकरी नाटक की भाषा सरल और ब्यवहारिक जन- भाषा है। भाषा मे कोई जटिलता नही है । नाटक की भाषा मंच पर अभिनय करने में सामर्थ्य है सर्वेश्वर ने नाटक की भाषा खड़ी बोली रखी है मगर पात्र के स्तर के अनुसार ज्ञानी पात्रो की भाषा मे अवधि मिश्रित है । नाट्य भाषा मे चलते – चलते मुहावरे , लोकक्ति साफ सुथरे सब्दो के प्रयोग से अत्यंत प्रभावी बन गए है साथ ही लोक गीतों का प्रयोग भी किया गया है ।

6. अभिनियता - अभिनियता नाटक का प्रांतत है कोई भी नाटक मंच पर अभिनय के लिए लिखे जाते है। अभिनियता कि दृष्टि से बकरी नाटक सर्वेस्वर के नाटकों में सरवत्कृष्ट है । खुले मंच अभिनय की दृष्टि से लिखा गया बकरी नाटक आम आदमी से जोड़ता है नाटक का हर एक प्रसंग अत्यंत आसानी से प्रकट हुआ है। इसी कारण से यह नाटक देश के अनेक भागों में अन्य भाषओं में सफलता पूर्वक रंगमंच पर खेला जा चुका है । इस नाटक की प्रस्तुति से लोग आज की ब्यवस्था पर सोचने समझने और कुछ करने को ततपर होते है यही इस नाटक की सफलता का कारण है ।
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7. उद्देश्य - बकरी नाटक समकालीन भारतीय राजनीति के भ्रष्टतंत्र को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी गयी है । ग्रामीणों के भोलेपन और मजबूरी को राजनेता किस प्रकार दुरुपयोग कर रहे है इसका स्पस्ट चित्रण यह नाटक करती है। दरअसल यह नाटक शोषण का दस्तावेज है जो समकालीन राजनीति के कुरूपता पर प्रहार करता है इस नाटक में जनचेतना को लोकभाषा और लोकरूपो के माध्यम से सामाजिक अन्याय के साथ जोड़ने का प्रयास करती है । जिस गांधी जी का नाम लेकर राजनेता अपने स्वार्थ के रोटियां सेक रहे है वे उनके सिद्धांतो को थोड़ा भी नही मानते यह नाटक वीरो ओर क्रांतिकारियों के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले पर व्यंग्य करता है ।

डॉक्टर अखिलेश गोस्वामी लिखते है – “ आज गांधी जी और गांधीवाद के नाम पर हर एक का रोजगार चमक रहा है ।“

निष्कर्ष रूप मे कहा जा सकता है कि बकरी नाटक राजनीति के दुश्चक्रों और उसमें फसे आम आदमी की व्यथा की कथा है । यह नाटक नाट्य तत्वो के कसौटियों पर पूरी तरह खड़ा उतरता है। इस नाटक में नाटक के सभी तत्व अपने सभी प्रभावशिलता के साथ मौजूद है । नाटक रंगमंच पर प्रदर्शन के लिए लिखे जाते है । बकरी नाटक प्रदर्शन की दृष्टि से अत्यंत लोकप्रिय नाटक रहा है । इसका प्रमाण यह है कि अपने प्रकाशन के तीन वर्षों में यह नाटक तीन सौ से अधिक बार प्रदर्शित हो चुका था यह नाटक देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में और अधिक सार्थक हो उठा है।



वापसी कहानी के आधार पर गजाधर बाबू का चरित्र चित्रण

 


वापसी कहानी के आधार पर गजाधर बाबू का चरित्र चित्रण कीजिये ।

उत्तर-  वापसी उषा प्रियंवदा द्वारा लिखी गयी एक महत्वपूर्ण कहानी है । गजाधर बाबू इस कहानी के सबसे प्रमुख पात्र है वे इस कहानी के वह केंद्रीय बिंदु है जिसकी परिधि में यह पूरी कहानी घूमती है । उनका कर्तब्य परायण ब्यक्तित्व पाठक को अपनीं ओर सहज ही आकर्षित कर लेता है । कहानी का कारुणिक अंत जिसमे गजाधर बाबू को अपने घर से जिस घर को उन्होंने अपने त्याग और समर्पण से सजोया था, छोर कर जाना पड़ता है। रेलवे की नॉकरी से सेवनिर्वित होकर अपने घर जाने और अपने ही घर मे उपेक्षा का शिकार होकर उसे भी छोर कर दूसरी नॉकरी में जाने तक उनके चरित्र की अनेक विशेषताए उभर कर सामने आती है जो निम्नलिखित है---------

1.कर्तब्यनिष्ट गजधारबाबू कर्तब्यनिष्ट ब्यक्ति है । उन्होंने अपने जीवन के सभी कर्तब्यों का निर्वाह किया है, उन्होंने 35 वर्ष नॉकरी की, बच्चो की अच्छी शिक्षा के लिए उन्हें अपने से दूर शहर में रखकर पढ़ाया । एक बेटे और बेटी की शादी की । शहर मे मकान बनवाया । उन्होंने कभी भी अपने कर्तब्यों से मुह नही मोरा । अपने जीवन के सभी कर्तब्यों का भली-भांति निर्वाह उन्होंने किया है।

2. स्नेही ब्यक्तित्व गजधारबाबू का ब्यक्तित्व बेहद स्नेही था। उनके ब्यक्तित्व का उल्लेख लेखिका ने भी इस कहानी में किया है “गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत सही ब्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी ।“ अपने परिवार की सुविधा और बच्चो की पढ़ाई के लिये जब उन्हें अकेला रहना पढ़ा तो उन्हें पत्नी और बच्चो के स्नेह पूर्ण बाते याद आती रहती जब वे सेवनिव्रित होकर घर जाने वाले थे टैब उन्हें लगता फिर से स्नेह के मध्य रहने जा रहे है।

3. सह्रदय-  गजाधर बाबू सह्रदय ब्यक्ति थे । अपने परिवार के साथ-साथ अपने नोकर गणेश के लिये उनके हृदय में विशाल प्रेम है। वे उसे अपने परिवार के सदस्य से कम नही मानते कभी कुछ जरूरत हो तो लिखना गणेश इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।“ उनका बिशाल हृदय सबकी खुशहाली की कामना करता रहता है।

4. त्याग की भावना -  त्याग की भावना गजाधर बाबू के चरित्र के एक बहुत बड़ी विशेषता है उन्होंने अपने जीवन मे बिशाल त्याग किया था । पत्नी और बच्चो को अपनो से दूर रख कर ओर वह भी सिर्फ उनके अच्छे परिवेश के लिये। यह एक बहुत ही बिशाल निर्णय था उनके जीवन का जो कि आपने त्याग की भावना से उन्होंने पूरा किया।

5. अकेलापन- सभी तरफ से सम्पन्न गजाधर बाबू अपने जीवन मे नितांत अकेले है अपने परिवार से दूर गांव के एक छोटे से स्टेशन में नॉकरी करते हुए अकेले जीवन यापन करते है लेखिका कहानी में लिखती भी है – “ इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रहकर काटा था।“

6. उपेक्षित गजाधर बाबू के जीवन के अंतिम समय मे इतने प्यार और समर्पण के बाद भी बेहद ही उपेक्षित अनुभव करते है उनके पत्नी बच्चे सब उनके साथ परायो जैसा ब्यवहार करते है। इतने सालों बाद अपने घर वापस आने पर उन्होंने जो सपना देखा था सब टूट जाता है। बच्चो को उनकी किसी भी बात पर टोकना अच्छा नही लगता । उनका बेटा अमर तो यहां तक कह देता है बुड्ढे आदमी हो । चुपचाप पढ़े रहो हर चीज़ में दखल क्यों देते हो।“ अपनो द्वारा उपेक्षित ओर तिरस्कृत गजाधर बाबू अपने को नितांत ही उपेक्षित अनुभव करने लगता है इसलिए अपना घर छोर कर फिर से दूसरी नॉकरी करने चले जाते है।

निष्कर्ष रूप मे कह सकते है कि गजाधर बाबू इस कहानी के प्रमुख पात्र है, जिनके चरित्र में त्याग और समर्पण जैसे गुण है लेकिन पीढियो के बड़े अंतर ने उन्हें जीवन के अंतिम क्षणों में भी अकेल रहने पर उपेक्षित महसूस करा दिया। बदलते हुए सामाजिक परिवेश में गजाधर बाबू का चरित्र एक आदर्श चरित्र है किंतु इसी जमाने मे प्रत्येक गजाधर बाबू कही न कही यही कहानी है।

आहुति कहानी के आधार पर रूपमणि का चरित्र चित्रण

 आहुति कहानी के आधार पर रूपमणि का चरित्र चित्रण कीजिये ?

उत्तर-  आहुति कहानी में वर्णित रूपमणि का चरित्र अन्य पात्रो की तुलना में अधिक विचारशील है । वैचारिक दृष्टि से रूपमणि गांधीवादी विचारो का करती है। रूपमणि एक विचारशील युवती है इसलिए वह बिशम्भर के विचारों से बहुत ही शिघ्र आकर्षित होकर स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन करने लगती है । रूपमणि में निम्न विशेषताएं देखने को मिलती है ----

1 . विचारशील युवती रूपमणि भावनाओ में बह नही जाती वह किसी भी विषय पर विचार करती है और विचार रखती भी है। जब विसंभर स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ बढ़ जाता है और आनंद नाराज हो जाता है तब वह उसके सामने अपने विचार रखती है “ रूपमणि ने जोश से कहा- इतना करके जाना बहुत सस्ता नही है।

2. सह्रदय रूपमणि ब्यवहार में बहुत सह्रदय युवती है विसंभर जब स्वतंत्रता आंदोलन में जाने लगता है तब वह विसंभर के प्रति दया भाव से भर जाती है तथा वह भी उसके साथ जाने की प्रार्थना करती है विसंभर के मना करने पर उसके हृदय के कोमल भाव विसंभर के लिए प्रार्थना करते है मैं ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करती रहूंगी।“

3. तर्कशील रूपमणि जितनी भावुक सहृदय युवती है उतनी ही तर्कशील है वह आनंद को अपने तर्कों से पराजित कर देती है। आनंद के तर्कों का जवाब वह अपने हिसाब से देती है क्या चाहते हो कि जमीनदार, वकील औऱ ब्यापारी गरीबो को चूष चूष कर मोटा होते जाय …… कम से कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नही है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाए।

4. अच्छी मित्र-  रूपमणि आनंद एवं विसंभर दोनो की अच्छी मित्र है मित्र धर्म का पालन भी करती है जब आनंद विशंभर का उपहास करता है तब विसंभर की ओर से रूपमणि मोर्चा संभालती है वह आनंद के कटु वचनों का जवाब देती है- विसंभर ने देहातो में ऐसी जागृति फैला दी है कि विलायत का एक सूत भी बिकने नही पाता ।“ …….. रूपमणि ने जोर से कहा इतना करके जाना सस्ता नही है।

5. क्रांतिकारीरूपमणि प्रारम्भ में भले ही क्रांति से उतनी प्रभावित न हो किन्तु बाद में वह विशम्भर की प्रेरणा से क्रांतिकारी हो जाती है ओर कहती है विसंभर ने जो दीपक जलाया है वह मेरे जीते जी बुझने ना पायगा ।“

निष्कर्ष रुप से हम कह सकते है कि रूपमणि इस कहानी में प्रमुख पात्र है जिसके माध्यम से प्रेमचंद ने अपने विचारों को वाणी प्रदान की है रूपमणि विचारशील सहृदय युवती है  कहानी के अंत मे उसका क्रांतिकारी होना भारतीय युवा छात्रों का स्वतंत्रता आंदोलन की ओर बढ़ता हुआ आकर्षण दिखलाता है ।


आहुति कहानी के आधार पर आनंद का चरित्र चित्रण

 

आहुति कहानी के आधार पर आनंद का चरित्र चित्रण कीजिये ?

उत्तर- आनंद आहुति कहानी के प्रमुख पात्रो में से एक है वह बुद्धि और पैसा दोनो तरफ से सम्पन्न है वह स्वार्थी होने के साथ साथ तर्कशील युवक है। जिसके कारण वह हमेशा बिसंभर पर भारी पड़ता था वह अपने स्वार्थ के कारण ही राष्ट्र आंदोलन में जाने से बचने की कोशिश करता है। इसकी चरित्र की प्रमुख विशेषता निम्न है

1.पैसे और बुद्धि से सम्पन्न आनंद पैसे और बुद्धि के मामले में अन्य पात्रो से अधिक सम्पन है। लेखक आनंद के विषय मे कहते भी है,- आनंद के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी और सरस्वती भी”

2.स्वार्थी- आनंद स्वार्थी था उसे अपने स्वार्थ की ही चिंता हमेशा रहती थी। वह स्वतंत्रता आंदोलन में इसलिए नही कूदता की अगर वह उसमे जायगा तो उसे नौकरी नही मिलेगी। उसे यह स्वतंत्रता आंदोलन मजाक दिखता है इसलिए वह कहता है- लेकिन मेरे जैसे सौ- पचास आदमी निकल ही आये तो क्या होगा ? प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नही दिखता।

3.अहम- आनंद में अपने पैसे और बुद्धि का अहंकार है इसलिए वह विसंभर को हर बात में दबाना चाहता है और उसपर अपना आधिपत्य दिखाता है- आनंद के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था वह उसे फटकारता था जलील करता था और बेवकूफ बनाता था।“

4. ईर्ष्यालु आनंद में ईर्ष्या भी थी वह विसंभर की सफलताओ से जलने लगा था इसलिए जब रूपमणि बिसंभर के नक्शे कदम पर चलने लगती है तो आनंद को बुरा लगता है कहता हुआ आनंद उठा खड़ा हुआ और बिना हाथ मिलाये कमरे के बाहर निकल गया।

निष्कर्ष रूप मे यह कह सकते है कि आनंद इस कहानी का ऐसा पात्र है जिसे कहानीकार ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर के उन लोगो का चित्रण किया है जो अपने स्वार्थ की प्रमुखता देते है बजाय राष्ट्र के।



आहुति कहानी के आधार पर बिसंभर का चरित्र चित्रण

 

आहुति कहानी के आधार पर बिसंभर का चरित्र चित्रण कीजिये?

उत्तर- आहुति कहानी मुख्य रूप से बिसंभर आनंन्द ओर रूपमणि के आस पास ही घूमती है। बिसंभर इस कहानी का प्रमुख पात्र हैजिसके माध्यम से प्रेमचंद ने इस कहानी के मुख्य उद्देश्य को उभारने का प्रयास किया हैबिसंभर यूनिवर्सिटी का छात्र है जो अपने बिषय में सोचना छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद जाता है उसके चरित्र में निम्न विशेषताए देखने को मिलती है-------

1.आर्थिक रूप से कमजोर- बिसंभर आर्थिक रूप से कमजोर छात्र है इस लिहाज से वह फूटी तक़दीर लेकर आया था। वह पूरी तरह प्रोफेसरों के दिये हुए वजीफे पर आश्रित था----”प्रोफेसरों ने दया करके एक छोटा सा वजीफा दे दिया था बस यही उसकी जीविका थी।“

2.आत्माभिमानी- बिसंभर भले ही आर्थिक रूप से कमजोर ओर पढ़ने में उतना तेज न हो, परंतु उसमे स्वाभिमान था अपने स्वाभिमान के लिए ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में केदता है वह जानता है जो वह करने जा रहा है उसके लिए वह हितकर नही है फिर भी वह इसमे जाता है क्योंकि अब मैं ओर अपनी आत्मा को धोखा नही दे सकता, यह इज्जत का सवाल हैऔर इज्जत किसी तरह का समझौता नही कर सकता”।

3.त्याग और निष्ठा- बिसंभर में त्याग और निष्ठा कूट कूट के भारी है वह अपने भविष्य को इस सर्त्त पर त्यागने को तैयार है कि स्वराज को प्राप्त होगा।  उसे पता है कि वह अगर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेता है तो उसे कही नौकरी नही मिलेगी फिर भी वह इसमे भाग लेता है वह रूपमणि से कहता है- इसके बदले यहाँ क्या मिलेगा जानती हो सम्पूर्ण देश का स्वराज इतने महान हेतु के लिए मर जाना भी उस जिंदगी से बढ़कर है।

4.कर्मठ- बिसंभर कर्मनिष्ठ ब्यक्तित्व वाला इंसान है स्वराज भवन से देहातो में जागृति फैलाने का जो काम उसे मिलता है वह उसे पूरी निष्ठा के साथ करता है। वह गांव मे ऐसी जागृति फैला देता है कि वहाँ कोई भी विदेशी वस्तु बिकने नही पाती। -बिसंभर ने देहातो में ऐसी जागृति फैला दी है कि विलायत का एक सूत भी बिकने नही पाता और न नशे की दुकान पर कोई जाता।“

5.त्यागी- बिसंभर त्याग की मूर्ति है वह स्वराज प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ त्याग कर पूरा मन प्राण से अपने कर्म में जुट जाता है। उसकी यही त्याग भावना रूपमणि को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है –“रूपमणि ने आज तक इस मंद बुद्धि युवक पर दया की थी इस समय उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया।“

निष्कर्ष रूप में यह कह सकते है कि बिसंभर इस कहानी का सबसे प्रमुख पात्र है जिसके माध्यम से प्रेमचंद ने समाज के हर तबके में जागृति फैलाने का प्रयाश किया है। बिसंभर की त्याग, कर्मनिष्टत्ता तत्कालीन समय के सभी युवाओ के लिए आवश्यक थी, तभी वह देश पूर्ण स्वराज को प्राप्त कर सकता था।



मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु

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