मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

सागर-कन्या और खग-शावक यात्रा वृतांत की समीक्षा

          सागर‌‌‌‌‌‌-कन्या और खग-शावक अज्ञेय द्वारा लिखित एक यात्रा वृतांत है जिसमे उन्होंने ने डेनमार्क की संस्कृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति के मेल एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को व्यक्त किया है। अपनी इस यात्रा वृतांत का प्रारम्भ वे भारतमाता के रूप वर्णन से करते है। साथ ही विविध देशों की देशमता का रूप भी सामने रखते है। जिसमे सभी कही न कही शक्ति और तेजश्विता का प्रतिक है। किन्तु डेनमार्क का प्रतिक इससे नितांत भिन्न है। उसका प्रतिक स्वप्न देखने वाली जलपरी है।
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       इस रेखाचित्र में मुख्य रूप से सांस्कृतिक मिलान को रेखांकित किया गया है। जिसमे उन्होंने डेनमार्क की संस्कृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार- “डेनी चरित्र की कल्पनाशीलता उसका प्रधान नही तो उसका महत्वपूर्ण गुण अवश्य है।“ उसी प्रकार भारतीय लोग भी अत्यधिक कल्पनाशील होते है और इसका चित्रण अज्ञेय ने संकेतों मे ही कर के छोर दिया है- “ हम आदिकवि बाल्मीकि पर गर्व करते है, यूनान के लोग होमर पर.......डेनमार्क को गर्व है परियों की कहानियां लिखने वाले होन्स एंडरसन पर।“ जहा अन्य देशों ने महायुद्धों की गाथा लिखने वालों पर गर्व किया वही डेनमार्क के लोगों ने परियों की कथा लिखने वाले पर गर्व किया। और यही से पूरे विश्व को एक सन्देश जाता है- शांति और खुशहाली का यही शांति, खुशहाली से भरने का प्रयास अज्ञेय करते है। इसलिए संपूर्ण विश्व का छोटा-छोटा चित्रण कर के संपूर्ण विश्व को डेनमार्क की तरह खुशतबियत और मिलनसार होने का संदेश देते है।
       डेनी जाती प्राचीन जनजातियों में से एक है और भारत प्राचीन सभ्यताओं का देश। भारत की अनेक ऐसी मान्यताएं है जो डेनमार्क से मिलती-जुलती है। जैसे- “इसके एक तलघर में पौराणिक डेनी महारथी हलगार डेन सोता है जो डेनमार्क के संकट के समय जागेगा और उसकी रक्षा करेगा।“ ऐसी पौराणिक कथाएं भारत में जाने कितनी भरी पड़ी है।
       डेनमार्क समुद्र के किनारे बसा हुआ देश है। भारत भी तीन तरफ से समुद्र से घिरा हुआ है। अज्ञेय लिखते भी है-“ पूर्वी बंगाल में जो हॉउर पाए जाते है, हॉउर सागर का ही अपभ्रंश है वैसा ही जलप्रसार यहाँ भी है। अंतर इतना ही है कि इसकी स्वच्छ पारदर्शी नीलिमा हमें तल की चट्टानें देख लेने देती है।“ यह पारदर्शिता ही डेनमार्क की सबसे बड़ी विशेषता है। लेखक डेनमार्क, स्वीडन, नाॉर्वे इन सब का आपसी भाईचारे का वर्णन करते हुए यह स्पष्ट दिखा देना चाहते है कि विश्व को एक मैत्रीपूर्ण व्यवहार के साथ जीना चाहिए। देश का राजा अथवा प्रधान देश के आम-जन से पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ होना चाहिए तथा जनता के सुख-दुखों में उसके साथ खड़ा होना चाहिए। जैसा डेनमार्क का इतिहास व्यक्त करते हुए अज्ञेय लिखते है- "राज परिवार के लोग इस पूर्णता के साथ अपने को जन-जीवन में मीला देते है कि अचरज होता है।"

        इस यात्रा वृतांत में अज्ञेय ने डेनमार्क, स्वीडन, नाॉर्वे की जिस आत्मीयता और भाईचारे का चित्रण किया है वह कहीं न कहीं विश्व के तमाम देशों को आवश्यक है-“क्या उस आत्मीयता के वृत्त को इतना और विकसीत नही किया जा सकता कि भारत और स्केंडनेविया में परस्पर अनुकूलता बढ़ाई जा सके।“ यह आत्मीयता सांस्कृतिक धरातल पर ही संभव है। डेनमार्क के लोगो का खुशमिजाज और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार कहीं न कहीं संपूर्ण विश्व को एकसूत्र मे बांधे रखने की क्षमता रखता है।
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       निष्कर्ष रूप मे कहा जा सकता है कि सागर कन्या खग शावक यात्रा वृतांत मनुष्य के कल्पनाशील व्यक्तित्व उसकी सांस्कृतिक विराटता की ओर संकेत करता है। सागर की तरह शांत और पारदर्शी होना डेनमार्क के लोगो के व्यक्तित्व की विशेषता है और यह विशेषता भारतीय लोगो मे भी कही न कही पायी जाती है। वशुधैव कुटुम्बकम का भाव इसका प्रमाण है। इसी सांस्कृतिक धरातल पर आत्मीयता के प्रसार का प्रयास अज्ञेय ने किया है।














                                               

गोबिंद कुमार यदव, बिरसा मुंडा कॉलेज, 6294524332
                                     


'काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था' निबंध की समीक्षा।

   काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित एक वैचारिक निबंध है। यह निबंध विचार प्रधान होते हुए भी भावुकता और बुद्धि का समन्वय है। चिंतामणि में आचार्य शुक्ल लिखते है ‘यात्रा के लिए निकली है बुद्धि पर ह्रदय को साथ लेकर।‘ अर्थात शुक्ल बुद्धि पक्ष और ह्रदय पक्ष दोनों का समन्वय अपने निबंधों में करते है। काव्य मे लोकमंगल की साधनावस्था उनका एक ऐसा ही निबंध है। काव्य में जिस लोक के मंगल का विधान होता है वह कही न कही बुद्धि और ह्रदय के समन्वय का ही परिणाम है।
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    काव्य में लोकमंगल की स्थापना तभी संभव है जब वह साधनावस्था में हो क्योंकि सिद्धावस्था में भोगपक्ष प्रधान हो जाता है ऐसी अवस्था में उच्च कोटि का साहित्य नही लिखा जा सकता। साधनावस्था प्रयत्न का काव्य है, संघर्ष का काव्य है इसीलिए इसके आदर्श उच्च होते है। आचार्य शुक्ल साधनावस्था को विशेष महत्त्व देते हैं इसिलए रामायण, रामचरित मानस, पद्मावत, पृथ्वीराज रासो उन्हें विशेष प्रिय है क्योंकि इसे वे साधनावस्था का काव्य मानते हैं। इसे वे कर्म क्षेत्र का सौंदर्य मानते हैं और कहते हैं- “लोक में फैली दुःख की छाया को हटाने मे ब्रह्म की अनंदकला जो शक्तिमय रूप धारण करती है, उसकी भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता, प्रचंडता में भी गहरी आर्द्रता साथ लगी रहती है।“ इस निबंध में शुक्ल ने लोकधर्म की ओर भी संकेत किया है। और उनके अनुसार लोकधर्म विरुद्धों का सामंजस्य है। निबंध मे वे लिखते हैं- “भीषणता और सरसता, कोमलता और कठोरता, प्रचंडता और मृदुता का सामंजस्य ही लोकधर्म है।“ यह लोकधर्म का सौंदर्य है।

      आदिकवि वाल्मीकि से लेकर अब तक के कवियों ने धर्म की स्थापना पर ही काव्य-कला का सौंदर्य मन है। धर्म के विषय मे आचार्य शुक्ल भी लिखते है- “वह व्यवस्था या वृत्ति जिससे लोक मे मंगल का विधान होता है । अभ्युदय की सिद्धि होती है, धर्म है।“ साधनावस्था का काव्य प्रयत्न और संघर्ष पर आश्रित है। इसिलए इसकी सफलता और विफलता दोनों में सौन्दर्य है। इसके लिए वे पाश्चात्य से लेकर भारतीय कवियों तक का उदाहरण देते है।
     साधनावस्था को ग्रहण करने वाले कवियों को ही शुक्ल पूर्ण कवि मानते है। क्योंकि उनका मन उपभोग पक्ष अर्थात सिद्धावस्था की ओर नही जाता। ये कवि- “जिस प्रकाश को फैला हुआ देखकर मुग्ध होते है उसी प्रकार फैलने के पूर्व उसका अंधकार को हटाया जाना देखकर भी।“ कवि-कर्म के सौंदर्य पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल कहते है कि जो कवि प्रत्येक अवसर पर सत-पात्र को सफल और दुष्ट पात्र को असफल दिखाते है वे सच्चे कवि नही होते है। इस जगत में प्रायः धर्म की शक्ति उठ उठकर व्यर्थ होती है। कवि-कर्म के सौंदर्य के विधाय में शुक्ल लिखते है- “कवि कर्म के सौंदर्य के प्रभाव के द्वारा प्रवृति या निवृति अन्तः प्रकृति में उत्पन्न करता है, उसका उपदेश नही देता। "
     मनुष्य सबसे अधिक कर्म सौन्दर्य के प्रति मुग्ध हित है और यह कर्म सौन्दर्य का विधान प्राचीन काल से ही होता आ रहा है। कर्म सौन्दर्य कही न कही ह्रदय से सम्बंधित है और वह भावो द्वारा नियंत्रित होती है। और भाव भी दो प्रकार के होते है पक्ष और प्रतिपक्ष-“मनुष्य के शरीर मे जैसे वाम और दक्षिण दो पक्ष है वैसे ही उसके ह्रदय में भी कोमल और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण दो पक्ष है, बराबर रहेंगे। काव्यकला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षो के समन्वय के बीच मंगल या सौन्दर्य के विकास मे दिखाई पड़ती है।“ 
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     निष्कर्ष रूप में हम कह सकते है कि काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक विचारात्मक निबंध है।जिसमे उन्होंने काव्य के उद्देश्य पर विचार किया है। काव्य का मुख्य लक्ष्य लोकमंगल को मन गया है और यह लोकमंगल साधनावस्था में ही संभव है। अर्थात जब प्रयत्न और संघर्ष पक्ष चल रहे होते है तब उत्कृष्ट कोटि के काव्य का निर्माण होता है एवं उससे लोक में मंगल का विधान होता है। सिद्धावस्था का काव्य भोग पक्ष को लेकर चलता है इअलिये उसमें लोक उपेक्षित हो जाता है। काव्य और कवि कर्म सौन्दर्य पर भी इस निबंध में विचार किया गया है। कुल मिलाकर हम कह सकते है कि इस निबंध में काव्य सौन्दर्य, कविकर्म सौन्दर्य, काव्य रचना का मूल उद्देश्य आदि पर विचार किया गया है।














                                               
             
                                     
                                                                                                            गोबिंद यादव
                                                                                                        बिरसा मुंडा कॉलेज 
                                                                                         ( हातिघिसा, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल )
                                                                                                          मो. 6294524332

शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना की प्रवृतियां।

      हिंदी में विशुद्ध आलोचना का प्रारंभ शुक्ल युग से माना जाता है। शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना में ना कोई आदर्श था ना कोई सिद्धांत। शुक्ल के आगमन के पश्चात हिंदी आलोचना में एक विराट परिवर्तन देखने को मिलता है। शुक्ल ने साहित्य के वस्तु वादी दृष्टिकोण का विकास किया और सामाजिक विकास के समानांतर साहित्य को देखने और परखने पर बल दिया। शुक्ल युगीन आलोचना आचार्य रामचंद्र शुक्ल को केंद्र में रखकर चलती है। उन्होंने आलोचना के नवीन मानदंडों की स्थापना की और समीक्षा पद्धति का सुनिश्चित आधार दिया। शुक्ल युगीन आलोचना युग की परिस्थिति के परिपेक्ष में कृति के मूल्यांकन पर बल दिया।

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         शुक्ल युगीन आलोचना का प्रारंभ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के महान आलोचनात्मक दृष्टि से प्रारंभ होता है। शुक्ल युगीन आलोचना की प्रमुख प्रवृतियां निम्नलिखित है-
1 तुलनात्मक आलोचना- शुक्ल की आलोचना के पूर्व जिस तुलनात्मक आलोचना का प्रारंभ हुआ था उसने आलोचक अपनी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के कारण किसी भी कवि या लेखक को श्रेष्ठ या हिन् सिद्ध करने की कोशिश करते थे। निश्चित रूप से आलोचना के शुद्ध प्रतिमान का निर्धारण तब तक नहीं हो सका था। निश्चित रूप से तुलनात्मक आलोचना के स्वस्थ एवं शुद्ध रूप का प्रारंभ शुक्ल युग से हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आलोचना के नवीन मानदंडों की स्थापना की और समीक्षा पद्धति का सुनिश्चित पथ निश्चित किया।
2 विश्लेषणात्मक आलोचना- शुक्ल युग ने आलोचना की विश्लेषणात्मक पद्धति अधिक प्रचलित थी। स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना पद्धति विश्लेषणात्मक पद्धति थी। इसीलिए वे रचना के गुण दोष तक सीमित न रहकर रचनाकार के विशेषताओं एवं उसकी अंतर प्रवृत्ति की छानबीन करते हैं। हिंदी के अन्य आलोचकों में जहां एकांगी दृष्टिकोण का आरोप लगाया जा सकता है वहीं शुक्ला इन आरोपों से परे है। शुक्ल की आलोचना दृष्टि कुछ मूल्यों पर आधारित है। लोकमंगल की साधना, रस सिद्धांत आदि मूल्यों पर आधारित आलोचनात्मक निबंध है।
3 शास्त्रीय आलोचना- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने शास्त्रीय आलोचना का विवेचन मौलिक ढंग से किया है। शुक्ल का रस मीमांसा शास्त्रीय विवेचन का ग्रंथ है। जायसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, गोस्वामी तुलसीदास आदि ग्रंथों में इन कवियों का मूल्यांकन वे शास्त्रीय विवेचन के आधार पर करते हैं।
4 कवि के व्यक्तित्व का अध्ययन- शुक्ल युगीन आलोचकों ने कवियों के रचनाओं के अध्ययन के साथ-साथ कवि के व्यक्तित्व को भी समझने का प्रयास किया। कवियों की सामान्य प्रवृत्तियों को उद्घाटित करना इस युग के आलोचकों का प्रमुख उद्देश्य हो गया। इसके अतिरिक्त उनकी कृतियों के आधार पर उनकी चिंतन धारा का अध्ययन भी किया। जैसे डॉ रामकुमार वर्मा द्वारा लिखित कबीर, पितांबर दत्त द्वारा लिखित निर्गुण संप्रदाय आदि व्यक्तिगत अध्ययन संबंधी आलोचना है।



5 देश काल की समीक्षा- साहित्य को उसके युगीन परिस्थितियों में रखकर आंकने की प्रवृत्ति का प्रारंभ आचार्य शुक्ल ने ही किया। उन्होंने तुलसी आदि महान कवियों के महत्व को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रखकर आका। हिंदी शब्द सागर की भूमिका में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा। इतना ही नहीं कवियों एवं काव्य धारा के देशकाल पर विचार किया। इस युग के अन्य आलोचकों ने भी इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का उपयोग किया। पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने भूषण की कविता को देश काल की परिस्थितियों में रखकर उस पर विचार किया।
      निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि शुक्ल युगीन आलोचना शास्त्रीय विवेचन, तुलनात्मक विश्लेषणात्मक आदि प्रवृत्तियों को अपने में समेटे हुए हैं। शुक्ल का महान व्यक्तित्व  इस आलोचना को एक नवीन दिशा प्रदान करता है। आलोचना के तृतीय उत्थान से ही हिंदी में विशुद्ध आलोचना का प्रारंभ होता है।


                                                  
         
                                                                                                                                                     गोबिंद यादव
                                                                                                        बिरसा मुंडा कॉलेज 
                                                                                         ( हातिघिसा, दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल )
                                                                                                          मो. 6294524332




शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

'आहुति' कहानी की समीक्षा।

                    प्रेमचंद की कहानी 'आहुती'  
                                                                - गोबिंद कुमार यादव  

   'आहुति' कहानी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में प्रेमचंद द्वारा लिखी गयी एक महत्वपूर्ण कहानी है। 'आहुति' का अर्थ होता है हवन में डालने की सामग्री। जब यह कहानी लिखी गयी थी तब देश में स्वतंत्रता आंदोलन का विशाल हवनकुंड जल चूका था, जरूरत थी प्रत्येग वर्ग के आहुति की। प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से देश के एक बहुत बड़े वर्ग- छात्र वर्ग  को प्रेरित किया है, इस आजादी के हवन में अपने तन,मन,धन की आहुति देने के लिए।

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    कहानी की कथावस्तु अत्यंत सुगठित है। इस कहानी में विश्वविद्यालय मे पढ़ने वाले तीन छात्रों-आनंद,विशम्भर, रूपमणि के माध्यम से कहानी का कथानक गढ़ा गया है। आनंद पैसे और बुद्धि से संपन्न था। विशम्भर इस मामले में पिछड़ा हुआ था। रूपमणि अपने स्वास्थ्य के कारण कॉलेज छोड़ चुकी है। इस बिच विशम्भर कांग्रेस का वोलेंटियर बन जाता है। आनंद उत्क्व इस निर्णय से आहत होता है और उसे समझने की कोसिस भी करता है, पर वह नही मानता।रूपमणि से भी वह उसके विषय में भला-बुरा कहता है।रूपमणि भी विशम्भर को समझने की कोसिस करती है, लेकिन असफल हो जाती है। विशम्भर के दृढ़ निश्चय का रूपमणि पर गहरा प्रभाव पड़ता है और उसके सामने गांधी की सजीव मूर्ति घूमने लगती है। विशम्भर का त्याग रूपमणि को पूरी तरह अपनी ओर खींच लेता है और वह रोज स्वराज भवन जाने लगती है। एकदिन विशम्भर आंदोलन करते हुए पकड़ा जाता है और उसे दो साल की सजा हो जाती है। इस पर आनंद और रूपमणि मे बहस होती है जिसपर रूपमणि कहती है- "विशम्भर ने जो दीपक जलाया है वह मेरे जीते जी बुझ न पाएगा।" यहाँ कहानी समाप्त हो जाती है। 

      आहुति कहानी में संवाद बेहद सुगठित और कही-कही व्यंग्य की पैनि धार भी देखने को मिलती है। जहाँ रूपमणि और विशम्भर का संवाद है वहा सहजता और आकर्षण है। रूपमणि और आनंद के संवाद में व्यंग्य की धार भी देखने को मिलती है। आनंद-रूपमणि का एक संवाद यह द्रष्टव्य है- 
अनंद- यह तुम्हारी निज की कल्पना होगी।
रूपमणि- तुमने अभी इस आंदोलन का साहित्य पढ़ा ही नही।
आनंद- न पढ़ा है , न पढ़ना चाहता हु।
रूपमणि- इससे राष्ट्र की कोई बड़ी हानि न होगी।
  ऐसे संवाद कहानी मे रोचकता का सृजन करते है।
   देश काल और वातावरण मि दृष्टि से यह कहानी आजादी के दौर की कहानी है। विभिन्न प्रकार के आंदोलन और बिचारो मे भी क्रन्तिकारी वातावरण है। शहरो से लेकर देहातो तक आंदोलन की गतिविधियां तेजी से बढ़ रही थी-" विशम्भर ने देहातो में ऐसी जाग्रति फैला दी है कि विलायत का एक सूत भी बिकने नही पाता।"

     चरित्र-चित्रण की दृष्टि से इस कहानी में मुख्य रूप से तीन पात्र है-आनंद, विशम्भर, रूपमणि। तीनो पत्रों का चरित्र प्रेमचंद ने इस प्रकार गढा है की यह कहानी के मूल भाव का वहन करने में पूर्ण रूप से सक्षम है।

       भाषा शैली की दृष्टि से यह  कहानी उत्कृष्ट रचना है। भाषा की दृष्टि से इसमें सहज प्रवाह है और पाठक को बांधे रखने की क्षमता भी।इसमें उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का खुलकर प्रयोग हुआ है। वोलेंटीयर, यूनिवर्सिटी, प्रोफ़ेसर जैसे अंग्रेजी शब्द आये है तो वज़ीफ़ा,इम्तिहान जैसे फ़ारसी शब्द भी।

      इस कहानी का उद्देश्य तीस के दसक में तेजी से फैल रहे स्वतंत्रता संग्राम को समाज के हर तबके तक पहचान था। पूर्ण स्वराज्य के अर्थ को भी प्रेमचंद ने परिभाषित किया जो आजतक अधूरी ही है- "जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेलियों पर लिए हुए है उन्ही बुराइयों को प्रजा इसीलिए सर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नही स्वदेशी है? कम से कम मेरे लिये तो स्वराज का यह अर्थ नही है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाए।" 

    कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह कहानी स्वतंत्रता आंदोलन की समीक्षा करती है, स्वतंत्र आंदोलन के हवनकुंड में भारत के सभी वर्गों को अपनी आहुति देने के लिए प्रेरित करती है।












                                                     - गोबिंद यादव
                                                बिरसा मुंडा कॉलेज
                                                    6294524332

मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु

  मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु   “घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति क...