बुधवार, 30 जून 2021

रजिया रेखाचित्र के आधार पर रजिया का चरित्र चित्रण





रजिया रामबृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्र संग्रह 'माटी की मुर्ते' में संग्रहित है जिसमे उन्होंने ग्राम चरित्रों को बखूबी चित्रित किया है। रजिया रेखाचित्र को भी उन्होंने ज्यो का त्यों चित्रित कर दिया है यही इस रेखाचित्र की सुंदरता है। इसमें रजिया के समूचे जीवन का सरस और सलोना चित्र लेखक ने खिंचा है। उसका संपूर्ण जीवन एक सजीवता, मधुरता और मनोहरता में नृत्य करता हुआ प्रतीत होता है। लेखक ने रजिया के बाह्य वर्णन, वेशभूषा का सूक्ष्म वर्णन इतनी तल्लीनता के साथ किया है कि उसका वास्तविक रूप मूर्तिमान हो गया है। इस रेखा चित्र में लेखक ने रजिया के बालपन से लेकर बृद्धावस्था तक का वर्णन इतनी स्पष्टता एवं कलात्मक तरीके से किया है कि उसका संपूर्ण जीवन दृश्यमान हो जाता है। लेखक ने रजिया के वाह्य एवम आतंरिक सौंदर्य पूरी सफलता के साथ उभरा है। इस रेखाचित्र में रजिया की निम्न विशेषताएं देखने को मिलती है।
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1)बाह्य सौंदर्य- रेखाचित्र के प्रारंभ में ही लेखक रजिया के रूप सौंदर्य का चित्रण करता है। रजिया अपने बाल्यावस्था मे जितनी आकर्षक और सुन्दर दिखती है उम्र बढ़ने के साथ उसका सौंदर्य और भी निखारता जाता है। रजिया के नाल्यावस्था के सौंदर्य का चित्रण लेखन निम्न पंक्तियों में करता है-“ गोर चेहरे तो मिले है किन्तु इसकी आँखों में जो अजीब किस्म का नीलापन दीखता वह कहा, और समूचे चेहरे की काट भी कुछ निराली जरूर।“ रजिया का सौंदर्य किशोरावस्था में और निखरता गया और उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व भी बनता गया। “ रजिया बढ़ती गई बच्ची से किशोरी हुई और अब जवानी के फूल उसपर खिलने लगे है। अब भी वह अपनी माँ के साथ आती है, कनितु पहले वह अपनी माँ की एक छाया मात्र लगती थी किन्तु अब उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी है और उसकी छाया बनने के लिए कितनो के दिलो में कसमसाहट है।“



2) संकोच एवं प्रेम भाव- लेखक का रजिया के साथ जो सम्बन्ध है उसे न दोस्ती कहा जा सकता है और न ही प्रेम। न सिर्फ लेखक ही रजिया भी सामान भाव से लेखक की तरफ आकर्षित थी। बाल्यावस्था में यह आम बात थी। जब भी लेखक गाँव अत रजिया सहज भाव से उसके पास आ जाती और ढेर सारी इधर-उधर की बाते करती। किन्तु उम्र के बढ़ने के साथ यह भाव भी बदलता गया। जब भी लेखक रजिया बाते करते गाँव के लोग उन्हें दूसरी निगाहों से देखने लगते, इस कारण रजिया में संकोच बढ़ता गया। “ फिर कुछ दिनों बाद पाया, वह अब सकुचा रही है। मेरे निकट आने के पहले वह इधर-उधर देखती है। और जब कुछ बाते करती तो ऐसी चौकन्नी से कि कोई देख न ले, सुन न ले।“

3) परिश्रमी- रजिया जन्मना परिश्रमी थी। उसके जन्म के बाद ही उसकी नियति अपने पारिवारिक कार्यक्षेत्र में जाना निश्चय था। बचपन से ही वह अपनी माँ के साथ चूड़ियां बेचने जाया करती थी और शीघ्र ही वह चूड़ियां बेचने और पहनने में पारंगत भी हो गयी। उसे चूडीहरिनो की सभी अदाएं आ गयी जो उसके पेशे के लिया आवश्यक है। “हा, रजिया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी। चुड़िहारिन के पेशे के लिए सिर्फ यही नही चाहिए कि उसके पास रंग-विरंग की चूड़ियां हो- सस्ती, टिकाऊ....बल्कि यह पेशा चूड़ियों के साथ चूडीहरिनो में बनाव-श्रृंगार, रूप-रंग, नाजोअदा खोजता है।“ रजिया बहुत शीघ्र ही इसमें पारंगत हो गयी थी।

4) खुशहाल- रजिया का जीवन बेहद खुशहाल था। वह मेहनती थी। उसने प्रेम विवाह भी किया। उसके तीन पुत्र भी हुए । उनके भी बच्चे हुए। पुरे रेखाचित्र मे कही भी उसके जीवन की परेशानियों का चित्रण नही हुआ है। जीवन की स्वाभाविक उत्तर चढ़ाओ तो आते रहते है किंतु कही भी ऐसा चित्र नही उभरा है जहाँ यह दिखे कि राजियो के जीवन में किसी प्रकार की कोई परेशानी हो।
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5) ईमानदार- रजिया अपने जीवन और पेशे दोनों में ईमानदार है। अपने रिश्ते के प्रति भी वह पूर्ण ईमानदार है। वह लेखक और अपने बिच के दोस्ती को अपने पति से कभी नही छिपाती। रजिया का व्यक्तित्व एक ईमानदार युवती का है।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते है कि रजिया रेखाचित्र में लेखक ने एक ऐसे ग्रामीण युवती का चित्र खिंचा है जो रूप सौंदर्य से लेकर उद्दात व्यक्तित्व के धनि है। उसका चरित्र एक आदर्श स्त्री का चरित्र है जिसने दोस्ती और पारिवारिक सम्बन्ध को ईमानदारी से निभाया है।









गोबिन्द कुमार यादव

बिरसा मुंडा कॉलेज



6294524332

महाकवि जयशंकर प्रसाद रेखाचित्र के आधार पर प्रसाद का चरित्र-चित्रण





'महाकवि जयशंकर प्रसाद' शीर्षक रेखाचित्र में शिवपूजन सहाय ने बताया कि प्रसाद महान् साहित्यकार एवं महाकवि थे। इसके अलावा वे विलक्षण स्मृति-शक्ति से सम्पन्न थे। वे स्वजातीय गुणों से युक्त और अनेक कलाओं के मर्मज्ञ थे। काशी की सभी विशेषताओं के भी विशेषज्ञ थे। वे काशी के पुराने, रईसों, पण्डितों, नर्तकों, लावनीबाजों एवं गायिकाओं आदि सभी की कहानियों के ज्ञाता थे। वे धर्मात्मा प्रवृत्ति के थे। व्यापारियों, मल्लाहों, सुनारों आदि की बोलियों और पशु- पक्षियों के लक्षणों के ज्ञाता भी थे।

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प्रसाद की वैदिक वाङ्गय और प्राचीन इतिहास में गहरी पैठ थी। संस्कृतसाहित्य के प्रमुख अंगों का अध्ययन-मनन करने में वे सदैव तत्पर रहते थे। शालिहोत्र एवं आयुर्वेदशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रकरणों को लेकर सुन्दर प्रवचन देते थे। उन्हें मोती, हीरा आदि रत्नों के गुण-दोषों को पूरा ज्ञान था। इसी प्रकार किमाम-इत्र आदि के निर्माण में दक्ष थे। काठौषधियों और जड़ी-बूटियों के ज्ञान में वैद्यक-ग्रन्थों के श्लोक उपस्थित कर देते थे। इस प्रकार प्रसाद लोक-ज्ञान से सम्पन्न महापुरुष थे।

आचार्य शिवपूजन सहाय ने 'महाकवि जयशंकर प्रसाद' रेखाचित्र में प्रसादजी के व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं का वर्णन किया है। तदनुसार उनके व्यक्तित्व का निरूपण इस प्रकार है।

1. महान् साहित्यकार - प्रसाद महान् साहित्यकार एवं महाकवि थे। उन्होंने नाटक, उपन्यास, महाकाव्य आदि की रचना से हिन्दी साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया। जब साहित्य के विविध पक्षो पर सभी साहित्यकार बाते करने लगते “तब प्रसाद जी की सरस्वती का मुखर होना देखकर चकित रह जाना पड़ता।“

2. प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व - प्रसाद अनुपम प्रतिभासम्पन्न थे। उन्होंने अपनी रचनाओं तथा अन्य कार्यों में विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दिया। साहित्य के सभी विधाओं पर प्रसाद का असाधारण अधिकार था। उनकी साहित्यिक प्रतिभाओं पर हिंदी जगत आज भी गर्व अनुभव करता है। “ हिंदी को प्रसाद जी कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि के रूप में जो निधि दे गए है, उसका मूल्याङ्कन कर के आज गौरव का अनुभव किया जा रहा है।“

3. कला-मर्मज्ञ - प्रसाद अनेक कलाओं के मर्मज्ञ थे। वे काशी की विशेषताओं के विशेषज्ञ थे। पाककला के ज्ञाता और अपने व्यवसाय मे कुशल थे। उन्हें न सिर्फ साहित्य बल्कि विविध कलाओं में भी पारंगत थे।

4. सर्वशास्त्रज्ञ - प्रसाद की भारतीय शास्त्रों में, आयुर्वेद, शालिहोत्र, वेद, उपनिषद एवं संस्कृत साहित्य के सभी अंगों में गहन गति थी। उन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। रेखाचित्र में लेखक लिखते हैं - "वैदिक ऋचाएं और उपनिषदों के लच्छेदार वाक्य तो उन्हें कण्ठस्थ थे ही,संस्कृत महाकवियों ने किस शब्द क कहा किस अर्थ में कैसा चमत्कार्पुर्ण प्रयोग किया है,इसको भी वे सोदाहरण उपस्थित करते चलते हैं। शालिहोत्र और आयुर्वेद-शस्त्रों के महत्वपुर्ण प्रकरणों पर उनके प्रवचन सुनने से उनके विस्तृत ज्ञान पर आश्चर्य होता था।" साहित्य अपने निबंधों में उनके शास्त्रों की गहन जानकारी को हम देख सकते है।

5. लोकज्ञान से सम्पन्न प्रसाद को विभिन्न व्यवसायों की पारिभाषिक शब्दावली और विविध बोलियों का गहन ज्ञान था। न सिर्फ हिंदी ब्रज भाषा का भी प्रसाद को अच्छा ज्ञान था। अपनी प्रारंभिक कविताएं वे ब्रज में ही किया करते थे।"खडीबोली हिंदी में ही काव्य रचना करते थे किंतु प्राचीन ब्रजभाषा काव्य में भी मर्मज्ञ थे। ब्रजभाषा सहित्य के बडे अनुरागी और प्रशंसक थे।" लोक को देखने एवं लोक संवेदना का चित्रण उनकी कविताओं में भी देखने को मिलता है।
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6. व्यवसाय में कुशल - प्रसाद अपने पैतृक व्यवसाय में कुशल थे तथा किमाम-इत्र आदि को बनाने में दक्ष थे। व्यवसाय उन्हें पारिवारिक विरासत में मिली थी। और उस व्ययसाय में वे कुशल और पारंगत थे।

7. स्वाध्यायशील - प्रसाद विद्याव्यसनी थे और रात्रि में स्वाध्याय में निरत रहते थे। स्वाध्याय से ही उन्होंने सभी शास्त्रों एवं कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। स्वाध्याय से ही उन्होंने वेद, उपनिषद, लोकशास्त्र का गहन अध्ययन किया था।







गोबिंद कुमार यादव



बिरसा मुंडा कॉलेज

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1. 'अहुती' कहानी की समीक्षा


2. शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना की प्रवृतियां


3. सागर कन्या और खग शावक यात्रा वृतांत की समीक्षा


4. चित्रलेखा उपन्यास मे व्यक्त पात्र-योजना


5. रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टी


6. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की निबंध-कला


7. हिंदी साहित्य का आदिकाल : हजारी प्रसाद द्विवेदी ( पुस्तक समीक्षा )


8. 'वापसी' कहानी की समीक्षा


9. नाखुन क्यों बढते हैं ? निबंध की समीक्षा


10. जीवन की आशा : 'ध्वनि' कविता


12. श्रव्य और दृश्य माध्यमों की समाजिक जीवन में भूमिका

नाखून क्यों बढ़ते हैं? निबंध की समीक्षा

नाखून क्यों बढ़ते हैं? निबंध की समीक्षा

नाखून क्यों बढ़ते हैं? एक ललित निबंध है। जिसमें भारतीयता, उसकी महत्ता, यहां के लोगों की सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक चिंतन, रहन-सहन, भाषा ज्ञान, संस्कृति पर समान रूप से प्रकाश डालते हैं। इस निबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानवतावादी दृष्टिकोण उभरकर सामने आया है। इसके माध्यम से बार-बार काटे जाने पर भी बढ़ जाने वाले नाखून के माध्यम से सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकासगाथा को उद्घाटित करते हैं। एक ओर नाखून का बढ़ना मनुष्य की आदिम पाशविक प्रवृत्ति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तो वहीं दूसरी ओर नाखून को बार-बार काटते रहना उसके मनुष्यता की निशानी है।

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द्विवेदीजी के इस निबंध की शुरुआत बच्चे की जिज्ञासा या एक प्रश्न से होती है। "नाखून क्यों बढ़ते हैं?" यह प्रश्न बच्चे द्वारा पूछा गया सामान्य सा प्रश्न नहीं रहता, जब लेखक इस प्रश्न में अंतर्निहित उसके व्यापक अर्थ को खोलता है । हम सभी जानते हैं कि नाखूनों का आज ऐसा कोई उपयोग नहीं है जो उसके होने की आवश्यकता को सिद्ध करे। लेकिन मानव इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा होगा जब मनुष्यों को इन नाखूनों की जरूरत थी। अपनी बर्बर अवस्था में जब मनुष्य बनमानुस की तरह रहा होगा, तब अपनी रक्षा और शिकार के लिए दांतों और नाखूनों का इस्तेमाल भी करता होगा। लेकिन आज नाखूनों का ऐसा कोई उपयोग बाकी नहीं रहा है। फिर भी, नाखून बढ़ते जाते हैं। आज नाखून को बढ़ाना अच्छा नहीं माना जाता, इसलिए मनुष्य बढ़े हुए नाखूनों को काटता है। शायद इसलिए कि बढ़े हुए नाखून असभ्यता और जंगलीपन की निशानी है।

द्विवेदीजी इस निबंध मे एक नया प्रश्न उठाते हैं। अगर मनुष्य सचमुच बर्बरता के चिह्नों से छुटकारा पाना चाहता है तो फिर वह हथियारों का निर्माण क्यों कर रहा है? किसी जमाने में मनुष्य अपनी रक्षा के लिए नख और दांत का प्रयोग करता था। फिर, पत्थर, लकड़ी और हड्डियों का इस्तेमाल करने लगा। लोहे के हथियार बने, बारूद का आविष्कार हुआ और अब एटम बम का युग है। हथियारों के इस विकास को देखें तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक विध्वंसक हथियार बनाने की ओर बढ़ रहा है। हिरोशिमा और नागासाकी का उदाहरण हमारे सामने हैं जहां एटम बमों ने लगभग दो लाख लोगों को कुछ ही मिनटों में लाश में बदल दिया था। तब कैसे कह सकते है कि मनुष्य सचमुच बर्बरता से मुक्त होना चाहता है? उसकी बर्बरता लगातार बढ़ रही है –“मनुष्य की बर्बरता घाटी कहा है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है। यह तो उसका नवीनतम रूप है।”

द्विवेदीजी निबंध में हमें यह जानकारी देते हैं कि आज सें दो हजार साल पहले भारत में नाखूनों को सजाने संवारने की कला का विकास भी हुआ थ.स्पष्ट है कि नाखूनों के जिस उपयोग का यहां संकेत दिया गया है उसका संबंध मनुष्य की विलास वृत्ति से रहा है। लेकिन द्विवेदीजी इस तरह की प्रवृत्ति के सकारात्मक पक्ष को भी हमारे सामने रखते हैं, जब वे कहते हैं कि “'समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचने वाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है।“ द्विवेदीजी के कहने का तात्पर्य यह है कि वे वस्तुएं जो मनुष्य को पतन की ओर ढकेलती हैं उनको भी भारतीय परंपरा ने कला का रूप देकर मनुष्यत्व के अनुकूल बनाने का प्रयास किया है।

उन्होंने इस निबंध में मुख्य प्रश्न यह उठाया है कि मनुष्य पशुता से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा है? नाखून के बढ़ने को वे पशुता मानते हैं और हथियारों के निर्माण को भी- “जानते हो नाख़ून क्यों बढ़ते है? यह हमारी पशुता के अवशेष है। जानते हो ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे है? ये हमारी पशुता की निशानी है।“ नाखून का बढ़ना ऐसी ही सहजात वृत्ति है जो उस अवस्था की द्योतक है जब मनुष्य बर्बर अवस्था में रहता था । मनुष्य इस बात को आज भूल गया है कि नाखूनों का बढ़ना उसी पशुत्व का प्रमाण है। बाहरी तौर पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है लेकिन पशुत्व का चिह्न अब भी विद्यमान है जिसे वह बढ़ने पर काट देता है। लेकिन क्या मनुष्य ने सचमुच मनुष्यता को अपना लिया है? इस प्रश्न का उत्तर है "नहीं"। क्योंकि मनुष्य नाखून भले ही काट रहा हो लेकिन हथियारों को तो लगातार बढ़ा ही रहा है।

समस्या की ही तरह वे समाधान के प्रश्न को भी सीधे रूप में नहीं रखते। वे अपनी चर्चा की शुरुआत अंग्रेजी के एक शब्द "इंडिपेंडेंस के भारतीय पर्याय से करते हैं। "इंडिपेंडेंस" का अर्थ है अनधीनता। अनधीनता का आशय है "किसी की अधीनता का अभाव' । लेकिन भारतीय पर्याय यह नहीं है। भारतीय पर्याय है, स्वाधीनता या स्वतंत्रता अर्थात स्व की अधीनता या स्व का तंत्र। इस प्रकार इसमें किसी की अधीनता का अभाव नहीं बल्कि 'स्व' की अधीनता का भाव निहित है। इसे दिवेदीजी भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हैं।

यहां एक शंका खड़ी हो सकती है कि क्या दिवेदीजी भारतीय परंपरा का महिमा मंडन कर रहे हैं? निश्चय ही नहीं । द्विवेदीजी कालिदास के मत का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि पुरातनपंथियों जैसी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि अगर हमारे अतीत के कोष में मानव जाति की भलाई की कोई बात हो तो हमें उसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए।

आचार्य द्विवेदी इसके बाद मानव जाति के लिए सामान्य धर्म की बात को उठाते हैं। आखिर मनुष्य और पशु में मुल अंतर क्या है? भारतीय परंपरा में आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार बातें ऐसी मानी गयी हैं जो मनुष्य और पशु में एक समान है। स्पष्ट ही इन चार बातों के होने मात्र से कोई मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं बन जाता। तब वह क्या चीज है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है? यहाँ दिवेदीजी उस सामान्य धर्म की बात करते हैं जिसे स्वयं मनुष्य ने खोजा है और जिसे मनुष्य अपने ऊपर बंधन के तौर पर स्वीकार किया है। संयम, श्रद्धा, तप, त्याग और दूसरों के दुख- सुख के प्रति संवेदना । निश्चय ही ये ऐसे धर्म हैं जिन्हें स्वीकार करने के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है लेकिन जिन्हें स्वीकार करके मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है।

भौतिक उन्नति इस बात की गारंटी नहीं है कि मनुष्य पशुत्व से मुक्त हो जाएगा। हथियार इसी भौतिक उन्नति का अंग है जिससे केवल विध्वंस और विनाश ही हो सकता है। लेकिन क्या मनुष्य का लक्ष्य विनाश है? महात्मा गांधी ने सावधान किया था कि सिर्फ भौतिक उन्नति से सुख और शांति नहीं मिलेगी। अपने मन को भी बदलना होगा मन से हिंसा, क्रोध, द्वेष और असत्य को दूर करना और दूसरों के लिए जीना सीखना होगा, दूसरों के लिए कष्ट सहन करना होगा।

द्विवेदीजी कहते हैं कि हो सकता है किसी दिन नाखून बढ़ना बंद हो जाएं क्योंकि जो हमारे लिए गैरे जरूरी है प्रकृति उसे हमसे अलग कर देती है - जैसे पूंछ । हो सकता है किसी दिन मनुष्य विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण बंद कर दे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हमें बच्चों को सिखाना होगा कि नाखून का बढ़ना पशुता की निशानी है और उसको बढ़ने देना मनुष्य का आदर्श नहीं है। इसी तरह हथियारों की बढ़ोतरी हमारी पशुता की निशानी है। और उनको कम करने की इच्छा रखना हमारी मनुष्यता का प्रमाण है। हमें अपने मनुष्य होने की पहचान को नहीं भूलना चाहिए।

मानव जाति की सार्थकता विनाशकारी हथियारों का ढेर लगाने में नहीं है। मनुष्य जीवन की सार्थकता इस बात नें है कि वह प्रेम, मैत्री और त्याग के मार्ग पर चले तथा सब के कल्याण के लिए अपने को समर्पित कर दे। नाखून के बढ़ने की तरह हिंसक वृत्ति भले ही मनुष्य की सहज वृत्ति का परिणाम हो, लेकिन उससे मुक्त होने की कोशिश करना भी मनुष्यत्व की पहचान है।

इस प्रकार द्विवेदीजी नाखून बढ़ने के सवाल से मनुष्य की हिसक वृत्ति को जोड़ते हैं और हिंसक वृत्ति के सवाल को हथियारों की बढ़ोतरी से। हथियारों में वृद्धि होने से मानवजाति के संपूर्ण

विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रश्न यह है कि इससे मुक्त कैसे हों? द्विवेदीजी इसके लिए आत्मनियंत्रण का मार्ग सुझाते हैं जो भारतीय परंपरा की देन है और जिसके द्वारा ही मनुष्य अपने अंदर की पशुता से मुक्त हो सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि यह निबंध हमें विश्व- शांति के महत्त्व पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है ।

निष्कर्ष रूप म हम कह सकते है कि इस निबंध में आचार्य द्विवेदीजी का मानवतावादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मनुष्य ने कुछ ऐसी भावनाओं और धारणाओं को भी अंगीकार किया है जिनसे वह अपनी पाशविकता पर विजय प्राप्त कर सके । दूसरों के सुख-दुख के प्रति संवेदना का भाव. भाव, दूसरों के लिए कष्ट उठाना वृत्तियों पर विजय पा सकता है। प्रेम का ये ऐसी चीजें हैं जिनसे व्यक्ति घृणा, क्रोध, हिंसा जैसी इस प्रकार हम देखते हैं कि इस निबंध में बस्तुत: दो भिन्न तरह की भावधाराओं का संघर् दिखाया गया है जिन्हें आज की हमारी सभ्यता के मूल में निहित माना जा सकता है।













गोबिंद कुमार यादव

बिरसा मुंडा कॉलेज
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मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु

  मन्नू भण्डारी – त्रिशंकु   “घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति क...