प्रेमचंदोत्तर हिंदी उपन्यास
1. मनोविश्लेषणवादी उपन्यास
2. साम्यवादी (प्रगतिवादी) उपन्यास
3. ऐतिहासिक उपन्यास
4. आंचलिक उपन्यास
5. प्रयोगवादी उपन्यास
1.मनोविश्लेषणवादी उपन्यास- मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में
जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी एवं अज्ञेय का उल्लेखनीय योगदान है। जैनेन्द्र (1905- 1988
ई.) ने परख (1929 ई.), सुनीता (1935 ई.) और त्यागपत्र (1937 ई.) के द्वारा हिन्दी
उपन्यास को एक नई दिशा प्रदान की। उनके कुछ अन्य उपन्यास है कल्याणी (1939 ई.), सुखदा
(1952 ई.), विवर्त (1953 ई.) और व्यतीत (1953ई.)। इन उपन्यासों में विभिन्न
पात्रों के मन की उलझनों, एवं शंकाओं का निरूपण कथा के माध्यम से किया गया है। त्यागपत्र
में 'मृणाल' के आत्मपीड़न की गाथा का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है, साथ ही अनमेल
विवाह के दुष्परिणामों का चित्रण किया गया है। सुनीता में फ्रायड के सिद्धान्तों
के आलोक में हरिप्रसन्न के व्यवहार का चित्रण है तथा कल्याणी एक अतृप्त और आधुनिक
नारी की कथा है। 'सुखदा' एक कुण्ठाग्रस्त नारी की कहानी है। जैनेन्द्र जी ने
आधुनिक समाज में नारी की स्थिति का यथातथ्य निरूपण करने का प्रयास अपने उपन्यासों
में किया है।
इस परम्परा के दूसरे उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी (1902-1982 ई.) ने उच्चकोटि
के लगभग एक दर्जन उपन्यासों की रचना की है। उनके प्रमुख उपन्यास हैं-संन्यासी (1941
ई.), पर्दे की रानी ( 1941 ई.), प्रेत और छाया (1945 ई.), निर्वासित (1946 ई.),
जिप्सी (1952 ई.) और जहाज का पंक्षी (1955 ई.)। इन उपन्यासों में जोशी जी ने मानव मन
की कुण्ठाओं एवं ग्रन्थियों का सुन्दर विश्लेषण किया है। यद्यपि उनके अधिकांश
उपन्यासों की मूल विषय वस्तु प्रेम एव रोमांस है तथापि उसका विवेचन मनोविज्ञान के
आलोक मं किया गया है।
मनोविश्लेषण परक उपन्यासों में अज्ञेय (1911-1981 ई.) द्वारा रचित शेखर एक
जीवनी (1941 ई.), नदी के द्वीप (1951 ई.) तथा 'अपने-अपने अजनबी' का महत्वपूर्ण
स्थान है। अज्ञेय में मनोविश्लेषण की गहन क्षमता के साथ-साथ सूक्ष्म सौन्दर्य बोध,
कला के प्रति ईमानदार चेतना विद्यमान है। 'शेखर एक जीवनी' वैयक्तिक मनोविज्ञान के
अध्ययन के क्षेत्र में एक । महती उपलब्धि मानी जा सकती है।
2.साम्यवादी/प्रगतिवादी उपन्यास- हिन्दी के साम्यवादी उपन्यास वे हैं जिनमें मार्क्सवादी
विचारधारा का आधार ग्रहण करके कथानक का ताना-बाना बुना गया है। यशपाल, राहुल
साकृत्यायन, रांगेय राघव, भैरव प्रसाद गुप्त और अमृतराय इसी कोटि के उपन्यासकार
हैं। यशपाल ने पार्टी कामरेड (1945), दादा कामरेड, देशद्रोही (1943 ई.), मनुष्य के
ूप (1949 ई.), अमिता (1946 ई.), दिव्या ( 1945 ई.) और 'झूठा सच' (1957 ई.), आदि
उपन्यासों में अपने मार्क्सवादी विचारों को अभिव्यक्ति दी है । झूठा-सच देश विभाजन
की त्रासदी पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें ततकालीन सामाजिक, राजनीतिक
परिस्थितियों का सफलतापूर्वक चित्रण हुआ है। इनके अतिरिक्त भैरव प्रसाद गुप्त ने
'मशाल' 'सती मैया का चौरा', आदि उपन्यासों में मार्क्सवादी चेतना का निरूपण किया
है।
इस युग के महत्वपूर्ण उपन्यास लेखक हैं-भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर। वर्मा
जी के कई उपन्यास प्रसिद्ध हुए हैं, यथा-चित्रलेखा (1934 ई.), भूले बिसरे चित्र,
टेढ़े-मेढ़े रास्ते, सामर्थ्य और सीमा तथा सबहिं नचावत राम गोसाई। इन उपन्यासों
में समकालीन राजनीति एवं समाज से कथानक लिए गए हैं तथा उपन्यासकार ने अपनी पैनी
दृष्टि से संयुक्त परिवार की समस्या, शोषण, सत्याग्रह, मिल-मालिकों की दुरंगी
नीति, पुलिस की धांधली, आदि का सटीक चित्रण किया है। 'चित्रलेखा ' में पाप-पुण्य की
समस्या को प्रस्तुत किया गया है।
अमृतलाल नागर ने सेठ बांकेमल, अमृत और विष, बूंद और समुद्र, महाकाल, शतरंज
के मोहरे, सुहाग के नूपुर, मानस का हंस, खंजन नयन, आदि अनेक उपन्यासों की रचना की
है। दू्व और समुद्र उनका श्रेष्ठतम उपन्यास है जिसमें भारतीय समाज की रीति-नीति
आचार-विचार, जीवन दृष्टि, भर्यादाओं एवं मान्यताओं का चित्रण कथानक के द्वारा किया
गया है। मानस का हंस' उनका एक जीवनी परक उपन्यास है जिसमें गोस्वामी तुलसीदास का
जीवन वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है। ২तता प्रकार 'खंजन नयन' में सुरदास के जीवन को
कथानक के रूप में बांधकर सर की जीवनी देने का प्रयास किया गया है।
3.ऐतिहासिक उपन्यास- हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासकारों में बाबू
वृन्दावन लाल बर्मा का उल्लेख किया जा चुका है। उनके अतिरिक्त चतुरसेन शास्त्री
एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम इस वर्ग में लिया जा। सकता है। हजारी प्रसाद जी
ने बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचन्द्र लेख, पुनर्नवा और 'अनामदास का पोथा' में इतिहास
और कल्पना का सुन्दर समन्वय करते हुए रोचक उपन्यासों की रचना की है। इन उपन्यासों
में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की सुन्दर प्रस्तुति हुई है। राहुल
सांकृत्यायन ने 'सिंह सेनापति' और जय यौधेय' नामक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे तथा
रांगेय राघव ने 'मुर्दों का टीला' नामक ऐतिहासिक उपन्यास में मोहनजोदड़ो के
गणतन्त्र का चित्रण किया है।
4.आंचलिक उपन्यास- स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में
'आंचलिक उपन्यास' एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। वे उपन्यास जिनमें किसी विशेष अंचल
का चित्रण कथानक के द्वारा किया जाता है, इस वर्ग में आते हैं। हिन्दी के आंचलिक
उपन्यासकारों में सर्वप्रमुख हैं-फणीश्वरनाथ रेणु जिन्होंने 'मैला आंचल' (i954 ई.) तथा परती परिकथा' (1957 ई.) नामक उपन्यासों
में बिहार के ग्रामीण अंचल के रहन-सहन, रीति-रिवाज, राजनीतिक आस्थाओं, आदि का विशद
चित्रण किया है। रेणु के अतिरिक्त अन्य आंचलिक उपन्यासकार हैं-नागार्जुन (रतिनाथ
की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरुण के बेटे) उदयशंकर भट्ट (सागर लहरें
और मनुष्य), रांगेय राघव (कब तक पुकारू), आदि।
ग्रामीण परिवेश को आधार बनाकर भी कुछ उपन्यास लिखे गए है। इनमें प्रमुख है-
आधा गांव (राही मासूम राजा), अलग-अलग वैतरणी (शिव प्रसाद सिंह) जंगल के फूल
(राजेन्द्र अवस्थी), बबूल (विवेकी राय), पानी के प्राचीर (राम दरश मिश्र), रथ के
पहिए (हिमांशु श्रीवास्तव)। इन सभी उपन्यासों में आधुनिकीकरण के कारण बदलते
ग्रामीण समाज का चित्रण किया गया है।
5. व्यंग्यपरक उपन्यास- इसी सन्दर्भ में उन उपन्यासों को भी लिया जा
सकता है जिनमें व्यंग्यात्मक लहजे में भारतीय समाज के समग्र रूप को चित्रित करने
का प्रयास किया गया है। इस दृष्टि से श्रीलाल शुक्ल कृत 'राग दरबारी' उल्लेखनीय
कृति है जिसमें स्वातन्त्रयोत्तर भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को
परत-दर-परत उघाड़ने की कोशिश की गई है। इस उपन्यास की कथाभूमि है बड़े नगर से कुछ
दूर बसा हुआ गांव शिवपालगंज, जहां की जिन्दगी प्रगति और विकास के तमाम नारों के
बावजूद निहित स्वार्थों एवं अवांछनीय तत्वों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की
पंचायत , कालेज की प्रबन्ध समिति और कोऑपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्य जी
साक्षात् रूप में वह राजनीतिक संस्कृति है जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे
चारों ओर फल-फूल रही है एवं लोकतांत्रिक मूल्यों का उपहास कर रही है।
6. प्रयोगवादी या आधुनिकता बोध के उपन्यास- आधुनिक हिन्दी उपन्यासों की नवीनतम धारा को प्रयोगवादी
उपन्यास या आधुनिकता बोध के उपन्यास कहा जा सकता है। औद्योगीकरण, बदलते हुए
परिवेश, भ्रष्ट व्यवस्था, महानगरीय जीवन और यान्त्रिक सभ्यता के परिणाम से आज जीवन
में तनाव, विश्वृंखलता, अकेलापन एवं निराशा घर कर गई है। कुण्ठा, संत्रास एवं
असुरक्षा की भावना ने हमें संत्रस्त कर दिया है। उपन्यासकारों की दृष्टि इस ओर भी
गई है और उन्होंने अनेक उपन्यासों में इन्हें अभिव्यक्ति प्रदान की है। मोहन राकेश
के 'अन्धेरे बन्द कमरे' (1961 ई.) तथा 'न आने वाला कल' (1968 ई.) ऐसे ही उपन्यास
हैं। इनके अतिरिक्त राजेन्द्र यादव के 'उखड़े हुए लोग' में उपन्यासकार ने टूटते
हुए मानव का चित्रण किया है। राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी के सम्मिलित प्रयासों
से लिखे गए उपन्यास 'एक इंच मुस्कान' खण्डित व्यक्तित्व वाले आधुनिक व्यक्तियों की
प्रेम ट्रेजिडी, पर आधारित है। इस उपन्यास का नायक अमर और नायिका अमला आत्म निर्वासन
से ग्रस्त हैं और प्रेम के छलावे में पड़कर निषेधात्मक मूल्यों तक जा पहुंचते हैं।
मन्नू भण्डारी ने 'आपका बंटी' में तलाकशुदा दम्पति के बच्चों पर पड़ने वाले
दुष्प्रभाव का निरूपण किया है तो नरेश मेहता के 'यह पथ बन्धु था ' में अकेलेपन एवं
अजनबीपन का बोध कराया गया है। निर्मल वर्मा के उपन्यासों-बीवे दिन (1964 ई.), 'लाल
टीन की छत' और 'एक चिथड़ा सुख' में भी आधुनिकता बोध मुखरित हुआ है।
उषा प्रियम्बदा के उपन्यास 'रुकोगी नहीं राधिका' एवं 'पचपन खम्भे लाल
दीवारें' में भी आधुनिकता बोध का गहरा रूप उभरा है। भीष्म साहनी कृत 'तमस' में
विभाजन की मानसिकता एवं उससे लाभ उठाने वाले लोगों को बेनकाब किया गया है। मनोहर
श्याभ जोशी कृत 'कुरू-कुरु' स्वाहा में युवा पीढ़ी की दिशाहीनता को अभिव्यक्ति दी
गई है। उक्त उपन्यासकारों के अतिरिक्त भी सैकड़ों उपन्यासकार नए-नए कथानकों की
कल्पना कर सुन्दर उपन्यास लिख रहे हैं। शिल्प की दृष्टि से भी नवीन प्रयोग किए जा
रहे हैं। धर्मवीर भारती का 'सूरज का सातबां घोड़ा', गिरधर गोपाल का 'चांदनी के खण्डहर'
नवीन शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय उपन्यास हैं।
सामाजिक चेतना की सशक्त अभिव्यक्ति शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास 'गली आगे
मुड़ती है', मेहरून्निसा परवेज के उपन्यास 'उसका घर' और गिरीश अस्थाना के उपन्यास
'धूप छांही रंग' में भी हुई है।
आधुनिकता बोध के उपन्यासों में मोहन राकेश कृत 'न आने वाला कल', निर्मल
वर्मा का 'वे दिन', राजकमल चौधरी का 'मछली मरी हुई', श्रीकान्त वर्मा का 'दूसरी
बार', महेन्द्र भल्ला का 'एक पति के नोट्स', कमलेश्वर कृत 'डाक बंगला' और 'काली
आंधी', गंगा प्रसाद विमल का 'अपने से अलग', सुरेन्द्र वर्मा का 'मुझे चांद चाहिए'
के नाम लिए जा सकते हैं। अस्तित्ववादी जीवन दर्शन, अनास्था, कुण्ठा, आदि की अभिव्यक्ति
इन उपन्यासों में हुई है। नरेश मेहता का उपन्यास 'यह पथ बंधु था' में मूल्यों के
प्रति निष्ठावान व्यक्ति को ट्भ हुए दिखाया गया है।
आधुनिक उपन्यासों में विषय-वैविध्य के साथ-साथ शैलियों के विभिन्न रूप
दिखाई पड़ते हैं। आत्मकथात्मक शैली, डायरी शैली, पत्र शैली, वर्णनात्मक शैली,
संवाद शैली, आदि विविध शैलियों में उपन्यास लिखे जा रहे है। आज उपन्यास का कथ्य जीवन
के अधिक नजदीक है, उसमें यथार्थ का पुट अधिक है। मानवीय सम्बन्धों के बदलते रूप को
उसमें उजागर करने का प्रयास किया गया है तथा महानगरीय बोध से उत्पन्न मानसिकता को
अभिव्यक्ति दी गई है। मन के भीतर की परतों को उधेडने का प्रयास भी इन उपन्यासों
में है। आधुनिकता बोध से उत्पन्न अकेलेपन अजनबीपन, यौन विसंगतियां, विद्रोह,
कुण्ठा एवं मूल्यों का हास आज के उपन्यास के विषय है। आज नए मूल्य तलाशने का
प्रयास किया जा रहा है और नैतिकता के प्राचीन मानदण्डों की अवहेलना हो रही है।
'सैक्स' एवं रोमानियत को इन उपन्यासों में अधिक स्थान मिल रहा है तथा बदलते परिवेश
के कारण परिवर्तित मानसिकता को बड़ी गहराई से व्यक्त किया जाने लगा है। आज के
उपन्यास ने चरित्र तो दिए हैं, किन्तु जीवन्त पात्र अर्थात् होरी जैसा पात्र देने
में वह सफल नही रहा। आवश्यकता इस बात की है कि उपन्यासों में मानव को उसके
सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जाए और उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा जाए, इसके
अभाव में वह जीवन्त दस्तावेज न बनकर 'गल्पमात्र' बनकर रह जाएगा। अस्तु हिन्दी
उपन्यास ने बहुत कम समय में आशातीत प्रगति की है । नए-नए। उपन्यासकार नए-नए विषयों
को लेकर उपन्यास लिख रहे हैं अंतः यह आशा की जा सकती है कि हिन्दी उपन्यास का भविष्य
मंगलमय है। अस्तु, अनेक दोषों के होते हुए भी हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा पर
हम सन्तोष कर सकते हैं।
गोबिंद कुमार यादव, बिरसा मुंडा कॉलेज, 6294524332 |
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